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साक्षात्कार प्राप्त किया और सुलझी हुई अन्तर्दृष्टि द्वारा मानवकी तत्कालीन समस्याओंके समाधान प्रस्तुत किये। उन्होंने अनेकान्त, अहिंसा, समता आदिका प्रवर्तन कर जन- जनको शान्तिका मार्ग बताया । इन चौबीस तीर्थंकरोंमें ऋषभनाथ, नमि, नेमि, पार्श्व और महावीरका निर्देश अन्य वाङ्मय एवं पुरातत्त्व आदि में भी प्राप्त होता है ।
वैदिक वाङ्मय और तीर्थंकर
विश्वके प्राचीन वाङ्मय में ऋग्वेदका महत्त्वपूर्ण स्थान है। उसको एक ऋचामें आदि तीर्थंकर ऋषभदेवका उल्लेख आया है
"ऋषभं मा समानानां सपत्नानां विवासहिम् | हंतारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपति गवाम् ||" ॠग्वेद
१०, १६६, १. यजुर्वेद और अथर्ववेदमें भी ऋषभदेवका उल्लेख प्राप्त होता है । श्रीमद्भागवतमें विष्णु के चौबीस अवतारोंमें एक ऋषभावतार भी स्वीकृत किया गया है, जिससे आदि तीर्थंकर ऋषभकी ऐतिहासिकता और प्रसिद्धि सिद्ध होती हैं । भागवत्तमें ऋषभदेवके जीवन-वृत्तका भी वर्णन प्राप्त होता है। लिखा है
"अथ ह भगवानृषभदेवः स्ववर्ष कर्मक्षेत्रमनुमन्यमानः प्रदर्शितगुरुकुलवासः लब्धवरेर्गुरुभिरनुज्ञातो गृहमेधिनां धर्माननुशिक्षमाणो..... शतं जनयामारा' । भगवानृषभसंज्ञ आत्मनन्त्रः स्वयं नित्यनिवृत्तानर्धपरम्परः केवलानन्दानुभव ईश्वर एवं विपरीतवत्कर्माण्यारभमाणः कालेनानुगतं गृहेषु लोकं नियमयत् ।
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अर्थात् भगवान् ऋषभदेवने समस्त लौकिक क्रियाओंका सम्पादन किया । वे परम स्वतन्त्र भौतिक आसक्तिसे रहित आनन्दस्वरूप साक्षात् ईश्वर थे । उन्होंने जनसामान्य में धर्माचरण और तत्त्वज्ञानका प्रचार किया। समता, शान्ति और करुणा के साथ धर्म, अर्थ, यश, सन्तानसुख, भोग और मोक्षका उपदेश देते हुए गृहस्थाश्रम में लोगों का नियमित जीवन व्यतीत करनेका उपदेश दिया । ऋषभदेव समस्त धर्म के माररूप, वेदके सुह्य रहस्यके ज्ञाता थे । वे सामदानादि रीति के अनुसार जनताका पालन करते थे । उन्होंने सौ यज्ञोंका सम्पादन किया था | इनके शासनकालमें प्रजा सुखी थी, उसे किसी भी वस्तुकी कमी नहीं थी । ऋषभदेवने अनेक देशोंमें विहार किया था तथा देश, राष्ट्र और समाज हितका उपदेश दिया था ।
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१. श्रीमद्भागवत ( गीताप्रेस- संस्करण ) ५/४/८. २. वही ५/४/१४.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ९