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है। श्रुतज्ञान शब्द, संकेत और स्मरणसे अर्थबोधक है। अमुक शब्दका अमुक संकेत है, यह जानने के पश्चात् ही उस शब्द के द्वारा ही उसके जोड होता है । संकेतको मतिज्ञान जानता है। उसके अवग्रहादि होते हैं। पश्चात् श्रुतज्ञान होता है। द्रव्यश्रुत मतिज्ञानका कारण बनता है, पर भावश्रुत उसका कारण नहीं बनता, विषय बनता है। कारण तब कहा जाता है जब श्रुतज्ञान शब्दके द्वारा श्रोत्रको उसके अर्थको जानकारी प्राप्त कराये ।
श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक दो मेद हैं। अङ्गबाह्य और अप्रविष्ट ये भी श्रुतके दो भेद है । इनमेंसे अङ्गबाह्यके अनेक भेद हैं और अङ्गप्रविष्टके आचाराङ्ग आदि बारह भेद हैं ।
पारमार्थिक प्रत्यक्ष
आत्ममात्र सापेक्ष साक्षात् अतीन्द्रिय ज्ञानको मुख्य या पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है । यह प्रत्यक्ष सम्पूर्णरूपसे विशद होता है । यह आत्मासे उत्पन्न होता है ! इन्द्रिय और मनके व्यापारकी इसमें आवश्यकता नहीं होती । इसके दो भेद हैं: -- (१) विकल प्रत्यक्ष और ( २ ) सकल प्रत्यक्ष | नवविज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और केवल पान सकल प्रत्यक्ष ।
अवधिज्ञान
अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान अवधिज्ञान है । यह पुद्गलादिरूपी द्रव्योंको ही विषय करता है, आत्मादि अरूपी द्रव्यको नहीं । यह पुद्गलद्रव्य और पुद्गलद्रव्यसे सम्बद्ध जीवद्रव्यकी कतिपय मर्यादाओं को जानता है; यतः संसारो जीव कर्मों से बँधा होनेसे मूर्तिक जैसा ही हो रहा है। अवधिज्ञानकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा निश्चित है ।
अवधिज्ञानके तीन भेद हैं: - (१) देशावधि, (२) परमावधि और (३) सर्वावधि । प्रकारान्तरसे अवधिज्ञानके दो भेद हैं: - - ( १ ) भवप्रत्यय ओर, (२) क्षयोपशमनिमित्त- गुणप्रत्यय । भवप्रत्यय अवविज्ञानका कारण भव - जन्म ही है। देवों या नारकियों में जन्म लेते ही अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम हो जाता है । यहाँ क्षयोपशम होने में भव हो मुख्य कारण है । इस सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि सम्यग्दृष्टियों के अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टियोंके कुअवधिज्ञान होता है । अवधिज्ञानावरण कर्मका क्षयोपशम जिसमें निमित्त रहता है, वह क्षयोपशमनिमित्तक या गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहलाता है । यों तो सभी अवधिज्ञान क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न होते है, फिर भी इस अवविज्ञानका नाम क्षयोपशमनिमित्तक इसलिए रखा है कि इसके होने में क्षयोपशम ही प्रधान
४३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा