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श्रुतमान
श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है । अर्थात् मतिशानके निमित्तसे श्रुतमानको उत्पत्ति होती है। सर्वप्रथम पांच इन्द्रिय और मन इनमेसे किसी एकके निमित्तसे किसी भी विद्यमान वस्तुका मतिज्ञान होता है। तदनन्सर इस मतिमानपूर्वक उस शात हुई वस्तुके विषय में या उसके सम्बन्धसे अन्य वस्तुके विषयमें विशेष चिन्तन आरम्भ होता है, यह श्रुतज्ञान कहलाता है। मनका विषय श्रस है और श्रसका अर्थ शब्द संकेत आदिके माध्यमसे होनेवाला ज्ञान है। मनका व्यापार अर्थावग्रहसे आरम्भ होता है । वह पदतर है ! पदार्थके संबंध संबंध होते ही पदार्थको जान लेता है। अतएव इसे व्यंजनावग्रह की आवश्यकता नहीं होती है । इन्द्रियोंके साथ मनका सम्बन्ध होता है और मन शब्द-संकेत आदिके माध्यमसे श्रुतको ग्रहण करता है। शब्द कान द्वारा सुनाई पड़ता, पर अर्थबोध मन द्वारा होता है। गाडीका सिगनल डाउन हो-1, यह चक्षका विषय है, पर यह किस बातका संकेत करता है, इसे चक्षु नहीं जानती है। उसके संकेतको समझना मनका कार्य है और यही श्रुतज्ञानका विषय है । वस्तुके सामान्यरूपके ग्रहणके अनन्तर ज्ञानवाराका प्राथमिक अल्प अंश अनक्षर ज्ञान होता है। उसमें शब्द-अर्थका सम्बन्ध, पूर्वापरका अनुसंधान विकल्प एवं विशेष धोका पर्यालोचन नहीं होता। ईहाके पश्चात् चिन्तनकी प्रक्रिया आरम्भ होती है और यह अन्तर्जल्पाकार ज्ञान ही श्रतज्ञान है। मनोमलक अवग्रहके पश्चात् होनेवाले ईहादि ममके होते हैं। मन मतिज्ञान और श्रुतज्ञान दोनोंका साधन है। यह श्रुत शब्दके माध्यमसे पदार्थको तो जानता ही है। साथ ही शब्दका सहारा लिए बिना शुद्ध अर्थको भी जानता है । साधारणत: अधियी जान इन्द्रिय और मन दोनोंको होता है। शब्दाश्रयी केवल मनको ही होता है। अतः स्वतन्त्ररूपमें 'श्रुत' मनका विषय है।
ज्ञान दो प्रकारका है:--(१) अर्थाश्रयी और (२) श्रोत्राश्रयो । सामान्य जलको देखकर नेत्रोंसे निकलनेवाले पानीका ज्ञान होता है, यह अर्थाश्रयी मान है । 'पानी' शब्दके द्वारा पानी द्रव्य'का सान होता है, यह श्रोत्राश्रयो ज्ञान है । धोत्राश्रयी और अर्थाश्रयी ज्ञान मनको होता रहता है, पर इन्द्रियोंको अर्थाश्रयी ज्ञान ही होता है।
दाच्य-वाचकके सम्बन्धसे होनेवाले ज्ञानका नाम श्रुतज्ञान है । इसे शब्दज्ञान या आगमज्ञान भी कहा जाता है। यतका मनन या चिन्तनात्मक जितना भी ज्ञान होता है उसकी गणना श्रुतज्ञानमें है । श्रुतज्ञानको मतिपूर्वक माना जाता है । इन दोनोंका कार्य कारण सम्बन्ध है । मतिकारण है और श्रुत कार्य
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ४३१