________________
विशाखमूतिने अनुरोध करते हुए कहा-"प्रभो, अभी कुछ दिनतक और शासन कीजिये । आपके रहते हुए हम निश्चिन्त हैं । हमें किसी प्रकारको चिन्ता नहीं है । अभी आपका तारुण्य है। अतः इन सांसारिक भोगोंको छोड़कर अमण-दीक्षा ग्रहण करना उचित नहीं।" विश्वभूतिने उसर दिया-"वस्स, मत्यु किसीको नहीं देखती। उसकी दृष्टिम रूप-कुरूप, जानी-अशानी, पण्डित-अपण्डित, बनीनिर्धन, युवा-वृद्ध सभी समान हैं । अतः आत्म-हितसाधनके लिये जितनी जल्दी प्रयास किया जा सके, श्रेयष्कर है।" __ जीवन ओस कणके समान अस्थिर है। संसारके भोग देखते-देखते विलीन होनेवाले हैं। शरीर, परा और भोग विद्युत्के समान चंचल हैं। अत्तः बात्मोत्यानमें सलान होनेके लिये प्रयत्नशील होना मेरे लिये आवश्यक है"।
इसप्रकार उत्तर प्रत्युत्तर सम्पन्न होनेके अनन्तर विश्वभूतिने अपने भाई विशाखभूतिका राज्याभिषेक करनेकी तैयारी की। राजगृह नगरीको पूर्णतया सज्जित किया गया। चारों ओर ध्वज, वन्दनवार लगाये गये । पुष्पमालाएं प्रमुख मार्गोपर लटका दी गयीं। चन्दन-कुमकुमसे छिड़काव किया गया। राजोषित सामग्रियां एकत्र की गयीं। शंखध्वनि हुई। तूर्यमेरी आदि धात्र जब उठे। मंगलाचार सम्पन्न किया गया। पुरोधाओंने मंत्रपाठ किया और विशाखभूतिको राज्यके पट्टपर प्रतिष्ठित किया गया।
प्रकृति के अणु-अणुमें नवचेतना व्याप्त हो गयी। सहमदल कमल विकसित हो गये । पुष्पोंका सौरभ और सुषमा जनमानसको आत्मविभोर बनाने लगी। मोहक वसंतऋतुका साम्राज्य व्याप्त हो गया। ऐसे ही मनोरम समय में विश्वभूतिने श्रमण-दीक्षा ग्रहण की। पंच मुष्ठी लोञ्चकर गुरुसे दिगम्बर मुनिके व्रतोंकी याचना की और उन व्रतोंको ग्रहणकर वे देशान्तरमें विहार कर गये।
विशाखभूतिने अपने बड़े भाई विश्वभूतिके पुत्र विश्वनन्दोको पराकमशाली और तेजस्वी समझ युवराजके पदपर प्रतिष्ठित किया । विश्वनन्दी अपने कार्यों में पूर्णतया सतर्क और सावधान रहता था। वह राज-काजमें भी यथेष्ट सहायता प्रदान करता था। उसने अपने विलासके लिये एक सुन्दर उद्यान बनवाया और उसमें आनन्दपूर्वक निवास करने लगा। इस उद्यान में आम, अशोक, अनार आदिके अगणित वृक्ष थे। उसकी सुन्दरता और मध्यमें निर्मित सरोवरफी रमणीयताको देखकर मनुष्योंकी तो बात ही क्पा, देवोंका भी मन चंचल हो जाता था। सरोवरके मध्य रक्त, पीत, हरित मादि नाना वर्णके कमल विकसित हो रहे थे। सरोवरके घाट सुन्दर बनाये गये थे, जिनपर हंस, मयूर आदिकी आकृतियाँ अंकित की गयी थी । विभिन्न प्रकारको लताएं ३२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा