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और उनसे निर्मित लतामंडप अद्भुत सौन्दर्यका सृजन करते थे । उद्यानके मध्यमें विश्राम करनेके हेतु मणिमाणिक्योंसे खचित शिलातल निर्मित किये गये थे। सभी मिलाकर वह उद्यान राजगृह नगर के सौंदर्यका प्रतिमान था ।
एक दिन वाटिका उसी मार्ग से विशास्त्रभूतिका पुत्र विशाखनन्दी जा रहा था। जब उसकी दृष्टि उस मनोरम वाटिकापर पड़ी, तो उसका मन उछलने लगा | वह सोचने लगा- "यों तो मैंने अनेक बार इस वाटिकाके दर्शन किये हैं, किन्तु आज यह मुझे सबसे अधिक सुन्दर लग रही है। इस उद्यानकी प्राप्तिके अभाव में तो यह जीवन ही व्यर्थ है । वह शुभावसर कब प्राप्त होगा, जब में इसे विश्वनन्दी से छीनकर अपना स्वत्व स्थापित कर सकूंगा ।"
राजकार्य सरल रेखाकी गतिसे नहीं चलता । इसमें अनेक वक्रताओं का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। अचानक विशाखभूतिको समाचार प्राप्त हुआ कि कामरूपका समीपवर्ती राजा विद्रोही हो गया है। उसने कर देना बन्द कर दिया है और विशाखभूतिको आज्ञा माननेसे भी इन्कार कर रहा है। राजदूत और चरोंने भी आकर बतलाया कि कामरूपनरेश राजाज्ञाको नहीं मान रहा है । उसने राजगृहके राजदूतको वहांसे निर्वासित कर दिया है और अपनेको स्वतंत्र घोषित कर दिया है।
इस समाचारले विशाखमूर्ति चिन्तित हुआ और उसने राजसभामें अपना विचार सामन्तोंके समक्ष रखा। अमात्य और सामन्तोंने अपने - अपने विचार प्रकट करते हुए कहा- "अब इस विद्रोहको शमन करनेके लिए ससैन्य आक्रमण करना चाहिये । इस प्रकार तो सभी नरेश स्वतंत्र होते जायेंगे और राजगृहकी सत्ता ही समाप्त हो जायगी ।"
सभाके इस विचारको सुनकर युवराज विश्वनन्दी कहने लगा- "तात, मेरे रहते हुए आपको युद्धभूमिमें जाने की आवश्यकता नहीं है। आप मेरे बल - पौरुष पर विश्वास कीजिये । में थोड़ी-सी सेना लेकर ही जाऊंगा और राजविद्रोहीको केकर आपके सामने उपस्थित कर दूंगा । कामरूपनरेश अभी हमारी शक्तिसे अपरिचित है । उसे यह नहीं मालूम कि मागधों में कितनी शक्ति है ? हमारा प्रत्येक सामन्त कामरूपनरेशको परास्त करनेकी क्षमता रखता है । मैं सामन्तोंके ऊपर इस दायित्वको छोड़ना नहीं चाहता । अतएव आप मुझे आदेश दीजिये । में कामरूपनरेशको बंदी बनाकर कुछ ही दिनों में यहाँ उपस्थित कर दूंगा ।"
युवराज विश्वनन्दीके अत्यधिक आग्रहको देखकर विशाखभूतिने उसे आक्र
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ३३
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