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मण करनेका आदेश दिया । रण-वाद्य बज उठे। वीर सैनिकोंने युद्धभूमिमें सम्मिलित होनेके हेतु तैयारियां आरम्भ की। तलवारोंकी खनखनाहट और कवचोंकी झनझनाहटने आकाशको पूरित कर दिया। शुभ मुहूर्त में विश्वनन्दीके नेतृत्वमें चतुरंगिणी सेनाने प्रस्थान किया और कुछ दिनों तक निरन्तर प्रयाण. करनेके पश्चात् राजगृहवाहिनीने कामरूपकी सीमामें प्रवेश किया। कामरूपनरेशने भी युद्धके निमित्त अपनी सेना तैयार की और निश्चित समयपर दोनों ओरको सेनाओंमें युद्ध होने लगा। राजगृहके कुशल सैनिकोंके समक्ष कामरूपके सैनिक ठहर न सके। कुछ ही घण्टोंके युद्धके पश्चात् भगदड़ मच गयो । सेना अस्त-व्यस्त हो गयी और कामरूपनरेश वंदी बना लिया गया।
विश्वनन्दी उसे युद्धबन्दी बनाकर राजगृह ले आया और विशाखभूतिके समक्ष उपस्थित किया । सम्राट विशाखभूतिने कामरूपनरेशके समक्ष संधिको शत प्रस्तुत की, जिनका पालन करनेका उसने पूर्ण वचन दिया। कामरूपनरेश स्वतंत्र कर दिया गया और दण्डस्वरूप उससे पांचसो हाथी एवं पांच सहस्र स्वर्णमुद्राएँ ले ली गयीं।
युवराज विश्वनन्दी जब उद्यान-विहारके लिये पहुंचा, तो उसने वहाँ देखा कि विशाखनन्दीने उसकी अनुमत्तिके बिना उद्यानपर अधिकार कर लिया है । उद्यानके मध्यमें निर्मित उत्तुङ्ग भवनके द्वारोंपर उसने अपने पहरेदारोंको नियुक्त कर दिया । फलतः जब विश्वनन्दी महलमें प्रवेश करने लगा, तो पहरे. दारोंने उसे रोका और कहा-"राजकुमार विशाखनन्दीकी आज्ञाके बिना आप इसमें प्रवेश नहीं कर सकते । अब यह भवन और वाटिका आपकी नहीं रही, विशाखनन्दीको है । कुमारको आज्ञाके बिना यहाँ कोई भी नहीं आसकता और न इस वाटिकामें विहार ही कर सकता है।"
विश्वनन्दी सोचने लगा कि इन निरीह प्रसिहारियोंसे संघर्ष करना व्यर्थ है। यों तो अपने चचेरे भाई विशाखनन्दीसे भी में झगड़ा करना नहीं चाहता । अतएव पहले मैं उसे यहां बुलाकर बातें कर लेना आवश्यक समझता है, जिससे परस्परकी मिथ्या धारणा दूर हो जाये ।
अपने उक्त विचारानुसार उसने कुमार विशाखनन्दीको बुलाकर कहा"वत्स, तुमने मेरी अनुमत्तिके बिना उद्यानपर क्यों अधिकार कर लिया है और क्यों वहाँपर अपने प्रतिहारियोंको नियुक्त किया है ? मैं कुछ कारण समझ नहीं सका हूँ। यदि तुम्हे वाटिकासे प्रेम है, तो तुम्हारे लिये दूसरी वाटिकाकी ३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा