________________
अन्तर्गत केन्द्रीयकरणकी भावनाके स्थानपर विकेन्द्रीयकरण की भावना विशेष रूपसे विद्यमान थी। भारत कई छोटे-छोटे राज्योंमें विभक्त था और कोई भी राज्य इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह भारतभूमिमें स्थित अन्य राज्योंको अपने अधिकारमें करके एक शक्तिशाली केन्द्रीय राज्यको स्थापना करने में सफल होता । सोलह महाजनपदोंकी यह व्यवस्था भी अधिक दिनों तक न रह सकी; क्योंकि कई जनपद दूसरे जनपदोंको निगलकर अपना कलेवर बढ़ाने में संलग्न थे ।
अंग और मगधमें संघर्ष चलता रहा । इसी प्रकार काशी और कोशल भी संघर्षरत रहे । संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि ईस्वी पूर्व छठी शताब्दी में समस्त उत्तर भारतके राज्योंमें आधिपत्य के लिये जो संघर्ष चल रहा था, उसमें मुख्यरूपसे कोशल, ल, अवन्ती और मनव शासकगण सक्रिय रूपसे भाग ले रहे थे । सभी अपने-अपने अस्तित्वको सुदृढ़ बनाने में लगे हुए थे और अपनेअपने राज्यके नेतृत्वमें एक संगठित साम्राज्यकी स्थापना करना चाहते थे । बिम्बसार, प्रसेनजित, चण्डप्रद्योत एवं वत्सराज उदयन प्रबल शासक थे और अपने-अपने क्षेत्रोंके विस्तार में संलग्न थे । इस लम्बे संघर्ष से ही भारतवर्ष में इतिहासका एक नया अध्याय आरम्भ होता है. जिसमें मगध और वैशालीका उत्कर्ष - अपकर्षं दिखलाई पड़ता है। तीर्थंकर महावीरके जन्म के समय देशकी राजनीतिक स्थिति विशृंखलित सी हो रही थी । राजतन्त्र और गणतन्त्र दोनों ही समानान्तर रूप में विकसित हो रहे थे। पर राजतन्त्रका अस्तित्व शनैः शनैः सुदृढ़ होता जा रहा था और यह गणतन्त्र-व्यवस्थाको ध्वस्त करना चाहता था ।
बौद्ध साहित्य में दस गणराज्योंका उल्लेख प्राप्त होता है । इनमें कपिलवस्तु के शाक्य और वैशालीके लिच्छवि प्रधान थे । शाक्य गणराज्य जनतन्त्रात्मक पद्धतिपर शासित होता था । शासन की बागडोर जनता के हाथोंमें थी और राजसत्ता अस्सी हजार कुलोन परिवारोंके हाथोंमें थी । राजाका निर्वाचन होता था और निर्वाचनके पश्चात् राजा राष्ट्रपति के रूपमें कार्य करता था। राज्य संचालनके लिये एक परिषद्का निर्माण किया जाता था, जो परामर्शदातृपरिषद्के रूपमें कार्य करती थी । कोई कार्य इस परिषद्की सम्मतिके बिना नहीं होता था। राज्यका प्रत्येक नागरिक राष्ट्रका सेवक माना जाता था । परिषद्को संथागार कहा जाता था । ललितविस्तर में शाक्य - राज्य के सदस्योंकी संख्या पाँच सौ बतलायी गयी है ।
वैशाली में लिच्छवि-गणराज्यं स्थापित था, जिसके सदस्योंकी संख्या सात ६६ खोर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा