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व्रत : स्वरूप-विचार और जावश्यकता
जीवनको सुन्दर बनानेवालो और आलोकको ओर ले जाने वाली मर्यादाएँ नियम कहलाती हैं । जो मर्यादाएं सार्वभौम हैं, प्राणीमात्र के लिए हितावह हैं और जिनसे 'स्व', 'पर' का कल्याण होता है, उन्हें नियम या व्रत कहा जाता है ।
व्रतकी परिभाषा में बताया जाता है कि सेवनीय विषयोंका संकल्पपूर्वक यम या नियम रूपसे त्याग करना, हिंसा आदि निन्द्य कार्योंका छोड़ना अथवा पात्रदान आदि प्रशस्त कार्यों में प्रवृत्त होना व्रत' है। जिसप्रकार सतत प्रगतिशोल प्रवाहित होनेवाली सरिताके प्रवाहको नियंत्रित रहनेके लिये दो तटोंकी आवश्यकता होती है, उसीप्रकार जीवनको नियंत्रित, मर्यादित बनाये रखनेके लिये व्रतोंकी आवश्यकता है। जैसे सटोंके अभाव में नदीका प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार व्रतविहान मनुष्यको जीवनशक्ति छिन्न-भिन्न हो जाती है । अतएव जीवनशक्तिको केन्द्रित करने और योग्य दिशामें ही उसका उपयोग करनेके लिये व्रतोंकी अत्यन्त आवश्यकता है ।
मूल बीच
यों तो व्यक्ति में अगणित दोष होते हैं और उनकी गणना भी सम्भव नहीं है। पर उन सभी दोषोंके मूलकी यदि खोज की जाय, तो विदित होगा कि मूलभूत दोष पाँच ही हैं। शेष समस्त दोष इन्हींके अन्तर्भूत हैं । ये पांच दोष हो व्यक्ति जीवनमें नाना प्रकारको बुराइयों उत्पन्न करते हैं और इन पाँच दोषोंके कारण मानवता संत्रस्त रहती है । इन्होंके प्रभावसे मानव दानव, राक्षस, चोर, लुटेरा, अनाचारी, स्वार्थी, प्रपंची आदि बना रहता है और ये ही दोष आत्माके उत्थानके मार्ग में गतिरोध उत्पन्न करते हैं । इन दोषोंके उत्पादक राग और द्वेष हैं । दोष निम्नलिखित हैं-
(१) हिंसा-राग-द्वेषके वशीभूत हो प्राणोंका घात करना । हिंसामें प्रमाद अवश्य निहित रहता है । प्राणवष द्रव्यहिंसा है और प्रमादयोग भागहिंसा 1
( २ ) असत्य भाषण - अयथार्थ और अप्रशस्त भाषण करना । दूसरोंको कष्ट पहुँचानेवाले वचनोंका प्रयोग भी असत्य भाषण में गर्भित है ।
१. सङ्कल्पपूर्वकः सेव्ये, नियमोऽशुभ कर्मणः । निवृतिर्वा प्रतं स्याद्वा प्रवृत्तिः शुभकर्मणि ॥
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- सागारधर्माभूत २८०
श्रीचकर महावीर और उनकी देशना : ५१३