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और विकारोंसे छुटकारा नहीं प्राप्त कर सकता है। इन्द्रियविषयलोलुपी जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। वह आत्मासे विमुख हुआ विषय-सेदनको ही सुखका साधन समझता है । अत: इन्द्रियोंको नियन्त्रित करना जितेन्द्रियता है ।
१२. धर्मविधि-श्रवण- अभ्युदय और निःश्रेयसका साधन धर्म है । युक्ति और आगमसे सिद्ध धर्मकी प्रतिष्ठा अथवा उसके स्वरूपका प्रतिदिन श्रवण धर्मविधिश्रवण है। अज्ञानता और तीन राग-द्वेषके वशीभूत हा व्यक्ति धर्मका श्रवण नहीं कर पाता है। इसके लिये आत्मपरिणामोंका कोमल होना आवश्यक है।
१३. दयालुता-दुःखी प्राणियोंके दुःखोंको दूर करनेकी इच्छा दया कहलाती है। जिसके हृदयमें कोमलता, करुणा और आर्द्रता है वही दयालु हो सकता है। धर्म-धारणको योग्यता प्राप्त करनेके लिये आत्म-परिणतिका दयायुक्त होना आवश्यक है । जिस व्यक्तिकी आत्मामें दयाकी जितनी अधिक भावना समाहित रहती है वह व्यक्ति अपनी आत्माको उतना हो धर्मधारण करनेके योग्य बनाता है।
१४, पापभीति-अनिष्ट फल प्रदान करनेवाले हिंसा, झूठ, चोरी आदि पापोंसे भीत रहना अपनेको धर्मधारणका अधिकारी बनाना है । जो निर्भय होकर पापाचरण करता है वह धर्मका अधिकारी नहीं हो सकता है । अतएव पाप-कार्योसे डरकर दूर रहना पापभीति है। __ इस प्रकार पाक्षिक श्रावक उक्त चौदह गुणों द्वारा अपनी आत्माको धर्मधारणके योग्य बनाता है।
श्रावकके द्वादश व्रतों और एकादश प्रतिमाओंका पालन करना चर्या अथवा निष्ठा है। इस चर्याका आचरण करनेवाला गृहस्थ नैष्ठिक श्रावक कहा जाता है।
जोवनके अन्तमें आहारादिका सर्वथा त्यागकर सल्लेखना द्वारा आत्म साधना करना साधन है। इस प्रकारके साधनको अपनाते हुए ध्यानशुद्धिपूर्वक आत्म-शोधन करनेवाला साधक श्रावक कहलाता है। श्रावकके द्वावशन्नत
शान, दर्शन और चारित्रको त्रिवेणी मुक्तिको ओर प्रवाहित होती है। किन्तु मानव अपनी-अपनी क्षमताके अनुसार उसकी गहराईमें प्रवेश करता है और अपनी शक्तिके अनुसार चारित्रको ग्रहण करता है। श्रावक घरमें रहकर पारिवारिक, सामाजिक राष्ट्रीय उत्तरदायित्वोंका निर्वाह करते हुए मुक्तिमार्गको साधना करता है। ५१२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-गरम्परा