________________
कताके बिना धनको प्राप्ति नहीं होती । प्रामाणिकता सदाचारपर निर्भर है। पाक्षिक श्रावकको अविरोधभावसे उक्त तीनों पुरुषार्थो का सेवन करना चाहिये ।
-
५. त्रिवर्गयोग्य स्त्री, प्राम, भवन — त्रिवर्गके साघनमें सहायक स्त्री या भार्या है। सुयोग्य भार्याके रहनेसे परिवार में शान्ति, सुख और सहयोग विद्यमान रहते हैं। संयम, अतिथि सेवा एवं शिष्टाचारको वृद्धि होती है । भार्याके समान ही त्रिवर्ग में साधक भवन और ग्रामका होना भी आवश्यक है ।
६. उचित लज्जा — लज्जा मानवजीवनका भूषण है । लज्जाशील व्यक्ति स्वाभिमानको रक्षा हेतु अपयशके भयसे कदाचारमें प्रवृत्त नहीं होता है । विरुद्ध परिस्थितिके आनेपर भी लज्जाशील व्यक्ति कुकर्म नहीं करता । वह शिष्ट और संयमित व्यवहारका आचरण करता है ।
७. योग्य माहार-विहार - अभक्ष्य, अनुपसेव्य और चलितरसके सेवनका त्याग करना तथा स्वास्थ्यप्रद और निर्दोष भोजन ग्रहण करना योग्य आहार है । जिह्वालोलुपी और विषयलम्पटी भक्ष्य अभक्ष्यका विवेक नहीं रख सकता है । अतएव विवेक और संयमपूर्वक आहार-विहारपर नियन्त्रण रखना योग्य आहार-विहार है।
८. आर्यसमिति - जिनके सहवाससे आत्मगुणों में विकास हो, संयमको प्रवृत्ति जागृत हो और आत्मप्रतिष्ठा बढ़े ऐसे सदाचारी व्यक्तियोंकी संगति करना आर्यसमिति कहलाती है। व्यक्ति शुभाचरणवाले पुरुषोंके सम्पर्कसे आचारवान् बनता है । नीच और दुराचारी व्यक्तियोंकी संगतिका त्याग अत्यावश्यक है ।
९. विवेक - कर्त्तव्या कर्त्तव्यका तर्क-वितर्कपूर्वक निर्धारण करना विवेक है | विवेक द्वारा लौकिक और पारलौकिक सभी प्रकारके करणीय और अकरो काका निर्धारण किया जाता है ।
I
१०. उपकार स्मृति या कृतज्ञता - कृतज्ञता मनुष्यका एक गुण है । जो व्यक्ति अपने ऊपर किये गये दूसरोंके उपकारोंका स्मरण रखता है और उपकार के बदले में प्रत्युपकार करनेकी भावना रखता है वह कृतज्ञ कहलाता है । कृतज्ञता जीवन विकासके लिये आवश्यक है। इस गुणके सद्भावसे धर्मषारणकी योग्यता उत्पन्न होती है ।
११. जितेन्द्रियता - इन्द्रियोंके विषयोंको नियन्त्रित करना तथा अनाचार और दुराचाररूप प्रवृत्तिको रोकना जितेन्द्रियता है । जो व्यक्ति इन्द्रियोंके अधीन हैं और विषय सुखोंको ही जिसने अपना सर्वस्व मान लिया है वह कषाय
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५११