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निष्ठा और (३) साधन । वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी देव, निर्ग्रन्थ गुरु और निर्ग्रन्थ धर्मको मानना पक्ष है। ऐसे पक्षको रखनेवाला श्रावक पाक्षिक कहलाता है । इस श्रेणी श्रावकको आत्मामें समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री, गुणी जीवों के प्रति प्रमोद, दीन-दुःखियोंके प्रति करुणा एवं विपरीतवृत्तिवालोंके प्रति माध्यस्थ्यभाव रहता है। यह न्यायपूर्वक आजीविकाका उपार्जन करते हुए जीवहिंसा से विरत रहने की चेष्टा करता है। पाक्षिकश्रावकके लिये निम्नलिखित क्रियाओं का पालन करना आवश्यक है ।
१. न्यायपूर्वक धनोपार्जन गार्हस्थिक कार्योंको सम्पादित करनेके लिये धूर्तता मीका अर्जित करना आवश्यक है। पर विश्वासघात, छल-कपट, और अन्यायपूर्वक धनार्जन करना त्याज्य है । जिसे धर्मका पक्ष है, देव, शास्त्र और गुरुके प्रति निष्ठा या श्रद्धा है ऐसा श्रावक धनार्जनमें अन्यास और अनीतिका प्रयोग नहीं करता। सन्तोष, शान्ति और नियन्त्रित इच्छाओंके आलोक में शुभप्रवृत्तियों द्वारा आजीविकोपार्जनका प्रयास करता है । आजीविका के साधनोंमें हिंसा और आरम्भका उपयोग कम से कम किया जाय इस बातका पूरा ध्यान रखता है । तुष्णा और विषय कषायों को सीमित और नियन्त्रित कर परिवार के भरण-पोषण के हेतु आजोविकोपार्जन करता है ।
२. गुणपूजा - आत्मायें मार्दवधर्मके विकासहेतु गुणां व्यक्ति और ज्ञान, दर्शन, चैतन्यादि गुणका बहुमान, श्लाघा एवं प्रशंसा करना गुणपूजा है । गुण, गुरु और गुणयुक्त गुरुओं का पूजन एवं सम्मान करना गुणविकासका कारण है । अपने भीतर सदाचार, सज्जनता, उदारता, दानशीलता और हित-मित-प्रियवचनशीलताका प्रयोग स्व और परका उपकारक है। जिस गाविकको धर्म के प्रति निष्ठा है वह अपने आचरण में वेय्यावृत्ति एवं गुणगृह पुजाको उपयोगी समझता है, अतः पाक्षिकथावककी पात्रता प्राप्त करनेके गुण - पूजा आवश्यक है | इससे आत्मा के अहंकार और ममकार भो क्षीण होते हैं ।
३. प्रशस्त वचन – निर्दोष वाणीका प्रयोग करना प्रशस्त वचन है । परनिंदा और कठोरता आदि दोषोंसे रहित प्रशस्त तथा उत्कृष्ट वचनांका शवहार जीवन के लिये हितकर और उपयोगी है ।
४. निर्वाध त्रियका सेवन -- धर्म, अर्थ और काम इन तीनों पुरुषार्थोका बिरोध रहित सेवन करना निर्वाध त्रिवर्गसेवन है । इन तीन पुरुषाद कामका कारण अर्थ है, क्योंकि अर्थके विना इन्द्रिय-विषयों की सामग्री उपलब्ध नहीं हो सकती है और अर्थका कारण धर्म है, क्योंकि पुण्योदय अथवा प्रामाणि ५१०: तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा