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द्रव्यापेक्षया-मनरूपमें परिणत पौद्गलिक मनोवर्गणाएँ पुद्गलपरमाणुका
अनन्तवा भाग । क्षेत्रापेक्षया-मनुष्यशेत्र-मनुष्यक्षेत्रके भीतर स्थित मनुष्यके मनकी पर्यायें। कालापेक्षया-अतीत, अनागत असंख्यातकाल सम्बन्धी मनकी पर्यायें ।
भावापेक्षया-मनोवर्गणाकी अनन्त अवस्थाएं । केवलज्ञान
आत्मामें भूत, भविष्यत् और वर्तमानमें स्थित समस्त द्रव्य और उनकी समस्त पर्यायोंको जाननेकी क्षमता है; पर आत्माकी यह क्षमता ज्ञानावरणकर्म द्वारा आवृत रहती है। समस्त जालावरगयामके समूल नाश होंगेयर प्रादुर्भूत होनेवाला निरावरणज्ञान केवलज्ञान है। यह आत्ममात्र सापेक्ष होता है । इस जानके उत्पन्न होते ही समस्त शायोपमिकज्ञान विलीन हो जाते हैं। यह समस्त द्रव्योंकी त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायोंको जानता है। यह पूर्णतः निर्मल और अतीन्द्रियज्ञान है।
जब आत्मा ज्ञानस्वभाव है और आवरणके कारण इसका यह ज्ञानस्वभाव खण्ड-खण्ड करके प्रकट होता है, तब संपूर्ण आवरणके विलीन होनेसे ज्ञानको अपने पूर्णरूपमें प्रकाशमान होना चाहिए । यथा अग्निका स्वभाव जलानेका है; यदि कोई प्रतिबन्ध न हो तो अग्नि ईन्धनको जलायेगी ही। इसी प्रकार ज्ञानस्वभाव आत्मा प्रतिबन्धकोंके हट जानेपर जगसके समस्त पदार्थो को जानेगी ।
जो पदार्थ किसी ज्ञानके शेय हैं, वे किसी-न-किसीके प्रत्यक्ष अवश्य होते हैं, यथा पर्वतीय अग्नि ।' इस प्रकार युक्तिद्वारा भी त्रिकालज्ञ केवलज्ञानकी सिद्धि होती है । जिसे केवलज्ञानकी प्राप्ति हो जाती है, वह सर्वज्ञ हो जाता है । यह सर्वज्ञता मुख्य, निरूपाधिक एवं निरवधि है । परोक्षप्रमाण ____ अविशद ज्ञानको परोक्ष कहा जाता है। जिस शानमें शानान्तरका व्यवधान हो अथवा जो इन्द्रिय, मन, उपदेश, प्रकाश आदिको सहाय सासे उत्पन्न होता हो, उसे परोक्ष कहते हैं। वस्तुतः जिस ज्ञानमें परकी अपेक्षा रहती है, वह १. शो जये कषमशः स्यादसति प्रतिबन्धके । दाहोऽग्निदाहको न स्थावसति प्रतिबन्धके ।।
--अष्टसाहस्री, प०५० पर उद्घत. २. प्रवचनसार-शानाधिकार गापा-४६-५१: अष्टशती-कारिका ११४, जयपवला प्रथम भाग, पृ. ६६.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशमा : ४३५