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मनःपर्ययमान
अन्य व्यक्तियोंके मनकी बातोंको जानना मनःपयंय है। यह मान मनके प्रवर्तक या उत्तेजक पुद्गलद्रव्योंको साक्षात् जाननेवाला है। चिन्तक जैसा सोचता है, उसके अनुरूप पुद्गलद्रव्योंकी आकृतियां--पर्याय बन जाती हैं। ये पर-मनस्थितपर्याय मनःपर्ययज्ञानके द्वारा जानी जाती हैं ! वस्तुतः मनःपर्ययका अर्थ है मनकी पर्यायोंका ज्ञान ।
सारांश यह है कि संज्ञी-समनस्क जीवोंके मन में जितने विकल्प उत्पन्न होते हैं, कामापसे दे शामें अदस्थित रहते हैं। मनःपर्ययज्ञान संस्काररूपसे स्थित मनके इन्हीं विकल्पोंको जानता है। मनःपर्ययज्ञानी पहले मतिज्ञान द्वारा अन्यके मानसको ग्रहण करता है और तदनन्तर मनःपर्ययज्ञानकी अपने विषयमें प्रवृत्ति होती है। __ मनःपर्ययज्ञानके दो भेद है:-(१) ऋजुमति और (२) विपुलमति । ऋजुमति सरल मन, वचन और कायसे विचार किये गये पदार्थको जानता है; पर विपुलमति सरल और कुटिल दोनों तरहसे विचारे गये पदार्थोंको जानता है। यह ज्ञान देव, मनुष्य और तिथंच सभीके मनमें स्थित विचारको अवगत करता है, किन्तु वह विचार रूपीपदार्थ अथवा संसारी जीवके विषयमें होना चाहिए ।
ऋजुमति और विपुलमतिमें विशुद्धि और सुक्ष्मताकी अपेक्षा अन्तर है। ऋजुमति केवलज्ञानकी प्राप्ति होने के पहले छूट जाता है, पर विपुलमति केबलज्ञानको प्राप्तिपर्यन्त बना रहता है और केवलज्ञान होनेपर हो छूटता है ।
अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानमें विशुद्धि, क्षेत्र, स्वामी और विषयको अपेक्षा अन्तर है। अधिज्ञान द्वारा ज्ञात किये गये पदार्थके अनन्तवें भागको मनःपर्पयशान जानता है। मनःपर्ययज्ञानका विषय
अवधिज्ञानको अपेक्षा मनःपर्य यज्ञानका विषय अत्यन्त सूक्ष्म है । १. अवरं दव्य मुदालियसरीरणिजिण्णसमयपबई तु ।
चविखदियणिज्जष्णं उमकरसं उमविस्स हवे ॥ मणदल्यवरगणाणमणतिमभागेण उजुगउक्फस्सं । लंछिदमेतं होदि ह विउलमदिस्सावरं दम्वं ।। अट्टह कम्माणं समयपबद्धं बिविस्ससोवचयं । धुवहारेणिगिवार भनिदे विदियं हवे दन्वं ।।
-गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४५०-४५२ तथा ४५३-४५८.
४३४ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा