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+ मद है।
करने के लिये दोनों नयोंका अवलम्बन आवश्यक है। आत्मप्रशा या आस्पानुमत्तिके समय व्यवहार नयका अवलम्बन हेय है। पर वस्तुस्वरूपका यथार्थ ज्ञान प्राप्त करनेके लिये उभयनयोंका आलम्बन आवश्यक है। नयाँ बन्य भेष-प्रभेव
द्रव्याथिक और पर्यायाधिक इन मूलनयोंके दो-दो भेद है:-१. अध्यात्मद्रव्याथिक, २. शास्त्रीयद्रव्यार्थिक, ३. अध्यात्मपर्यायार्थिक, ४. शास्त्रीयपर्यायाधिक।
इनमें से अध्यात्मद्रव्याथिकके दश भेद हैं और अध्यात्मपर्यायाथिकके छह भेद हैं । शास्त्रीयद्रव्यार्थिकके मूलतः तीन भेद हैं और उपभेदोंकी अपेक्षा सात भेद हैं। तीन भेदोंमें नेगम, संग्रह और व्यवहार हैं। नैगमके तीन भेद, संग्रहके दो भेद और व्यवहारके दो भेद इस प्रकार ३ +२+२=७ मेद हैं । शास्त्रीयपर्यायाथिकके चार भेद हैं:-ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूद और एवंभूत । इनमें ऋजुसूत्र नयके दो भेद हैं और शेष नयोंमें कोई उपभेद नहीं है। इस प्रकार शास्त्रीयपर्यायाथिकके २+३.१. १०५ मेर। इस तरह शास्त्रीयनयके ७+५- १२ और अध्यात्मके १०+६ - १६ कुल १६ + १२ - २८ निश्चयनयके भेद हैं। ___ व्यवहारनयके मूलतः तीन भेद हैं:-१. सद्भूत, २. असद्भूत, ३. उपचरित । इनमें सद्भूतके दो, असद्भूतके तीन और उपचरितके तीन इस प्रकार व्यवहारनपके कुल आठ भेद हैं।
निश्चय २८ + व्यवहारनय ८-३६ नयके समस्त भेद हैं ।
१. कर्मोपाधिनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिक-कर्मबन्धसंयक्त संसारी जीवको शक्तिकी अपेक्षा सिद्धसमान शुद्ध ग्रहण करना ।
२. सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिक-उत्पाद-व्ययको गौणकर केवल सत्ताको ग्रहण करना।
३. भेदविकल्पनिरपेक्षशुद्धद्रव्याथिक--गुण-गुणो और पर्याय पर्यायीमें भेद न कर द्रव्यको गुण-पर्यायसे अभिन्न ग्रहण करता 1
४. कर्मोपाघिसापेक्षअशुद्धद्रव्यार्थिक-जीवमें क्रोधादिभावोंका ग्रहण करना।
५. शत्ताग्राहक अशुद्धद्रव्याथिक-उत्पादव्ययमिश्रित सत्ताको ग्रहण करना।
६. भेदकल्पनासापेक्षअशुद्धद्रव्यार्थिक-द्रव्यको गुण-गुणो आदि भेद सहित ग्रहण करना ।
७. अन्वयद्रष्याथिक-समस्त मुण-पर्यायोंमें द्रव्यको अन्वयरूप ग्रहण करना ४६६ : तोचकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा