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नहीं है । यह भी सत्यके निकट पहुंचानेवाला है, अत: उसके आलम्बनसे पदार्थका प्रतिपादन करना उचित है । अन्यथा व्यवहारके बिना निश्चयनयसे जीव शरीरसे सर्वथा भिन्न दिखलाया गया है । इस अवस्था में जिस प्रकार भस्मका उपमर्दन करनेसे हिंसा नहीं होती, उसी प्रकार स स्थावर जीवोंका निःशंक उपमर्दन करने से हिंसा नहीं होगी और हिसाके न होनेसे बन्धका अभाव हो जायगा | इसके अतिरिक्त रागी, द्वेषी और मोही जीव बन्धको प्राप्त होता है, अतः उसे ऐसा उपदेश दिया गया है, जिससे वह राग-द्वेष और मोहसे छुटकारा पा ले । अर्थात् जो आचार्योंने मोक्षका उपाय बतलाया वह व्यर्थ हो जायगा; क्योंकि परमार्थसे जीव राग-द्वेष-गो अन्न ही दिया है.
जब आत्मा सर्वथा शरोरसे भिन्न है तब मोक्षके उपाय स्वीकार करना असंगत होगा और इस प्रकार मोक्षका भी अभाव हो जायगा ।"
आशय यह है कि निश्चय और व्यवहार ये दोनों ही नथ पात्रभेदकी दृष्टिसे प्रतिपादित हैं। एक हो नयका माश्रय लेनेसे समस्त पात्रोंका कल्याण नहीं हो सकता । जो परमभावको अवगत करनेवाला है, उसके लिये शुद्ध तत्त्वका कथन करनेवाला निश्चयनय ग्राह्य है और जो अपरमभावमें स्थित हैं, उनके लिये व्यवहारनय । निश्चय और व्यवहार ये दोनों ही अपनी-अपनी दृष्टिसे पदार्थ-स्वरूपके बोधक हैं। जो जीव यथार्थ रूपसे निश्चय और व्यवहारको अवगत कर एकान्तपक्षका त्याग करता है और मध्यस्थवृत्ति गृहण करता है वही आत्म-स्वरूपको समझता है ।
जो जीव स्वयं मोह्का वमनकर निश्चय और व्यवहारके विरोधको ध्वस्त करनेवाले 'स्यात्' पदसे चिह्नित नयवचनोंका अनुसरण करता है, वह परम ज्योतिस्वरूप आत्माको अवगत कर लेता है । वस्तुस्वरूपका परिज्ञान प्राप्त
व्यवहारो हि व्यवहारिणां म्लेच्छभाषेष म्लेच्छानां परमार्थप्रतिपादकस्या दपरमार्थोऽपि तीर्थप्रवृत्तिनिमित्तं दर्शयितुं न्याय्य एव । तमंतरेण तु शरीराज्जीवस्य परमार्थतो भेददर्शनात् सस्थावराणां भस्मन इष निःशंकमुपमर्दनेन हिसाऽभावाद्भयत्येव बन्धस्यामात्रः । तथा रक्तो द्विष्टो विमूढो जीवो वध्यमानो मोचनीय इति रागद्वेषमोहेभ्यो जीवस्य परमार्थतो भेदवर्शनेन मोक्षोपायपरिग्रहणाभावात् भवत्येवमोक्षस्याभाव: ।
२. समयसार गाथा १२.
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समयसार गाथा ४: अमृतचन्द्राचार्यकी टीका.
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तीर्थंकर महावीर और उनको देशना : ४६५