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तब राजपुरुषोंको उनपर और अधिक आशंका हुई। महावीर जैसे-जैसे अपनी सहनशीलता दिखलाते जाते थे, वैसे-वैसे राजपुरुष उन्हें कष्ट देते जाते थे।
महावीरके बन्दी बनाये जानेकी घटना नगरमें व्याप्त हो गयी | अतः विजया और प्रशल्भा नामक दो परिवाजिकाएं तुरन्त घटना स्थलपर पहुंची। उन्होंने महावीरको पहचानकर राजपुरुषोंसे कहा-"क्या तुम लोग सिद्धार्थराजकुमार अन्तिम तीर्थंकर महावीरको नहीं पहचानते ? महावीरको साधनासे मनुष्योंकी तो बात ही क्या, देव-दानव भी प्रभावित हैं। ये तीर्थकरप्रकृति-धारी निर्गन्ध महावीर हैं। इनकी उम्र तपश्चर्यासे इन्द्रादि भी अत्यन्त प्रभावित हैं। महावीर स्वाबलम्बन, धनी हैं। इन्हें स्वयं अपनेपर विश्वास है । अतएव ये किसी परोक्ष शक्ति की सहायता नहीं चाहते हैं ।"
परिकाजकाओंके इस कपनको सुनकर राज्याधिकारी कांप उठे। उन्हें अपनी अशानजन्य भूलका अनुभव हुआ और वे क्षमा-प्रार्थना करते हुए कहने लगे--"प्रभो! अज्ञान और प्रमादसे हो अपराध होते हैं। हमने आपकी जो अवमानना की है, उसके मूलमें अज्ञान ही है। आप दयामति हैं और क्षमाके धनी हैं । अतएव हम लोगोंके अपराधको क्षमा कर दीजिये।"
महावीरने मौन रहकर उन राजपुरुषोंको क्षमा कर दिया और वे पुन: निद्वन्द्वभावसे विहार करने लगे। __पियसे महावीरने वैशालीकी ओर विहार किया । गोशालक यहाँसे महावीरके साथ नहीं गया और उनसे बोला-"भगवन् ! न तो आप मेरी रक्षा करते हैं और न आपके साथ रहने में मुझे किसी प्रकारका सुख मिलता है। प्रत्युत कष्ट हो भोगने पड़ते हैं और भोजनकी भी चिन्ता बनी रहती है। अतएव अब मैं आपके साथ नहीं चल सगा।' यह कह कर गोशालक राजगहको ओर चला गया। महावीर शान्त और मौनभावसे गोशालकका कथन सुनते रहे। दे वैशाली पहुँचकर एक फम्मारशाला-लोहारके कारखाने में ध्वान-स्थित हो गये । दूसरे दिन कम्मारशालाका स्वामी लोहार वहाँ आया। वह छह महीनेकी लम्बी बीमारीसे उठा था । जब कारखाने में कामपर गया, तो पहले-पहल नग्न दिगम्बर व्यक्तिके दर्शनको अमंगल और अशुभ समाता । अतएव वह हथोड़ा लेकर महावीरको मारने के लिये दौड़ा । इसी समय संयोगवश कोई भद्र पुरुष आ गया और उसने तीर्थंकर महावीरका परिचय उस लोहारको दिया । विमेलक मकाका चिन्तन
वैशालीसे चलकर महावीर ग्रामाफ-सन्निनेशकी ओर आये । यहाँके उद्यानमें विमेलक यक्षका चैत्य था । यक्षके कार्योंका आतंक सर्वत्र व्याप्त था । महा१५२ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा