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वीरने यक्षके चैत्यमें सामायिक ग्रहण किया और आत्म-स्थित हो गये। यक्षपर महावीरको शान्त और सौम्य मुद्राका बहुत प्रभाव पड़ा और वह उनकी स्तुति करने लगा। ___ महावीर गामाकसे शालिशीर्ष पधारे और वहाँके उद्यानमें कायोत्सर्ग करने लगे। माघका मास था। कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी और तीर्थंकर महावीर दिगम्बर-मद्रामें ध्यानस्थ थे । इस समय महावीरके चारों ओर दिव्य कान्तिपुञ्ज अवस्थित था। उनके रोम-रोमसे शान्तिका प्रवाह निकल रहा था । कटपूसनाका उपसर्ग : असंख्यातगुणी कामनिर्जरा
इसी समय वहाँ कटपूतना नामक एक व्यन्तर देवी आयी और तीर्थकर महावीरकी इस शान्त मुद्राको देखकर द्वेषसे जल उठी । क्षणभरमें उसने परिवाजिकाका वेश धारण किया और विखरी हुई जटाओं में पानी भरकर महावोरके ऊपर छिड़कने लगी तथा उनके कंधोंपर चढ़कर प्रचण्ड हवा करने लगी। ___ भयंकर शीतऋतु, जलवर्षा और तीक्ष्ण पवनने इस समय भीषण और असाधारण उपसर्ग उपस्थित किया। महावीर मौन भावसे साधनामें सुमेरुवत् दृढ़ रहे । केटपूतना महावीरकी अपराजिता वीतरागताके सम्मुख नतमस्तक हो गयी | उसने अपना पराजय स्वीकार किया और महावीरकी तपश्चर्याको प्रशंसा करते हुए उनके चरणोंका वन्दन किया।
महावीरका जीवन तपोमय था । वे दुर्लघ्य पर्वत, अन्धकारपूर्ण गुफाओं, निर्जन नदी-तट, बीहड़ वन एवं सूनसान श्मशान भूमिमें आस्म-साधना करने में तत्पर रहते थे। वास्तवमें महावीरका आत्म-परिष्करण अद्भुत था। वे मोह-भंगके हेतु समस्त पदार्थोंसे आसक्ति तोड़ने में संलग्न ये । सार्वभौम समत्त्व ही उनका आधार था। उनके समक्ष सिंह-मग, मयूर-सर्प, मार्जार-मुषक जेसे अन्तविरोधी भी शान्त थे । वीतरागताके प्रभावने उनकी जन्मजात शत्रुप्ताको समाप्त कर दिया था । सर्वत्र प्रेम, शान्ति और सौख्यका साम्राज्य व्याप्त था ।
शालिशीर्षसे महावीरने भहिया नगरोकी ओर विहार किया और वहीं छठा वर्षावास ग्रहण किया । महावीरने चातुर्मासभरका उपवास-व्रत किया और अखण्डरूपसे आत्म-चिन्तनमें निरत रहे ।
गोशालक भी छह महीने तक अकेला भ्रमण करता हुआ शालिशीर्ष में महाबीरसे आ मिला । महावीरने चतुर्मास समाप्त होनेपर भद्दिया नगरीके बाहर पारणा ग्रहण की और यहाँसे उन्होंने मगध-भूमिकी ओर विहार किया ।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १५३