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सप्तमवयं-साधना : आत्म-दर्शन
आत्म-साधक योगीश्वर तीर्थंकर महावीर क्षुधा तृषा, शीत-उष्ण आदि परीषहोंको सहन करते हुए आत्म-दर्शनकी ओर उन्मुख हुए । उन्होंने निश्चय किया कि आत्मा शुद्ध स्वरूपको समझे विना साधककी साधना सफल नहीं हो सकती है। मानव जीवनका सर्वोच्च लक्ष्य मुक्ति प्राप्त करना है। मुक्ति भय-बन्धनोंसे विमुक्त होने का नाम है। इसके लिये तत्त्वज्ञानकी नितान्त आवश्यकता है । जबतक कर्मका आवरण है, तबतक साधकके जीवन में पूर्ण प्रकाश प्रकट नहीं हो पाता है। अतः भीतर के प्रसुप्त ज्ञान एवं विवेकको जागृत करनेको आवश्यकता है । मोक्ष जीवनको पवित्रताका अन्तिम परिपाकरस और लक्ष्य है। विवेक एवं बैराग्यकी साधना करते हुए कदम-कदमपर साधकके बन्धन टूटते रहते हैं और मोक्षकी प्राप्ति होती है ।
मानव सदा परस्पर के प्रतिशोध और विद्वेषके दावानल में झुलसता रहता है । यही कारण है कि वह आत्म-बोध, आत्म-सत्य अथवा आत्म-ज्ञानको प्राप्त नहीं कर पाता है । जब तक व्यक्ति विश्वको समग्र आत्माओंको समान भावसे नहीं देखता, तब तक उसे आत्म-दर्शन नहीं हो पाता है। यह आत्म-दर्शन कहीं बाहर से आनेवाला नहीं है, यह तो हमारी आत्माका धर्म है, हमारी चेतनाका धर्म है, एवं शाश्वत तत्व है। हमें जो कुछ पादा है, वह कही बाहर नहीं है, वह स्वयं हमारे भीतर स्थित है । आवश्यकता है केवल अपनी आत्म-शक्तिपर विश्वास करनेकी विचार करनेकी और उसे जीवनकी धरतीपर उतारनेकी । आत्म-दर्शन मनुष्यको प्रसुप्त शक्तिको प्रबुद्ध करता है, आत्माका पूर्ण विकास करता है और आत्म-स्वरूपका पूर्ण उद्घाटन करता है। अतएव मुझे अपनी साधना द्वारा आत्म-दर्शन करना है। यों तो मैंने सामायिकका अभ्यास किया है, पर अभी समय आत्म-साधना शेष है। जब तक पूर्ण वीतरागता और निष्कामताकी उपलब्धि नहीं होती, तक तक मेरो साथमा अनवरत रूपसे चलती रहेगी।
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नृपतिद्वारा चरण-वन्दन
महावीर शीत और उष्णाकालमें मगधभूमि में विचरण करते रहे। जब वर्षाकाल निकट आया, तो उन्होंने आलम्मिया नगरीमें सप्तम वर्षावास ग्रहण किया । इस वर्षावासमें भी महावीरने चातुर्मासिक तप और विविध योग क्रियाओंकी साधना की । वर्षावास के समाप्त होनेपर उन्होंने पारणाके हेतु कुण्डाक
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१५४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य - परम्परा