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सन्निवेश की ओर विहार किया। इस सन्निवेशमें महावीरने वासुदेव के मन्दिरमें स्थित हो ध्यान लगाया और कुछ दिनों तक साधना कर मद्दना सन्निवेशको ओर विहार किया । यहाँ वं बलदेवके मन्दिर में ध्यानस्थ हो गये । साधुके अठ्ठा ईस मूलगुणों का पूर्णतया पालन करते हुए यहाँसे लोहार्गला नामक राजधानीमें पधारें। यह कि राजा जितशत्रुपर उन दिनों शत्रुलोंकी वक्र दृष्टि थो, असएव राजपुरुष बहुत सावधान रहते थे। कोई भी व्यक्ति अपना परिचय दिये विना राजधानी में प्रवेश नहीं कर सकता था । महावीर और गोशालकके यहाँ पहुँचते ही पहरेदारोंने उन्हें रोक दिया और परिचय मांगा। ये दोनों मौन रहे । फलस्वरूप राजपुरुषोंने इन्हें बन्दी बना लिया ।
जिस समय महावीर और गोशालक राजसभा में लाये गये, उस समय वहाँ अस्थिकग्रामवासी नैमित्तिक उत्पल भी उपस्थित था। महावीरको देखते हो वह खड़ा हो गया और चरण-वन्दन कर बोला- "अरे गुप्तचरों, तुम इन्हें नहीं पहचानते ? ये चौबीसवें तीर्थंकर महावीर हैं। चक्रवर्तीके लक्षणोंसे भी बढ़कर शारीरिक लक्षण इनमें विद्यमान हैं। इन जैसा तेजस्वी, पराक्रमी, आत्म-द्रष्टा अन्य नहीं है । आप लोगोंने इन्हें बन्दी बनाकर महान् अपराध किया है ।
उत्पल द्वारा परिचय प्राप्त करते हो जितशत्रुने महावीर और गोशालकको बन्धन मुक्त कर दिया और चरण-वन्दन करते हुए उनसे क्षमा प्रार्थना की।
अष्टमवयं-साधना : आत्मोदयकी ओर
श्रमण जीवनका मूलोद्देश्य प्राणियोंको श्रेयोमार्ग की ओर प्रवृत्त करना है । यही वह मार्ग है, जिसके द्वारा आत्माको अनन्त एवं यथार्थकी उपलब्धि हो सकती है। आत्मा कमजाल में आबद्ध होनेसे ही चिरकालतक संसारमें परिभ्रमण करती रहती है । यह अपने शुभाशुभ कर्मके परिणामस्वरूप ही नाना योनियोंमें परिभ्रमण करती है । यथार्थज्ञानके अभाव में वह भौतिक सुखको ही सच्चा सुख मानकर उसीमें यथार्थ आनन्दकी मिथ्या अनुभूति करती है । अतएव भौतिक सुखकी नश्वरता सुनिश्चित होनेपर भी व्यक्ति आत्मोदयसे विमुख रहता है ।
ध्यातव्य है कि प्रत्येक आत्मा अनन्त गुणोंका अक्षय बमृतकूप है, जिसका न कमी अन्त हुआ है और न कभी अन्त होगा । विवेकज्योति या आत्मोदय होनेपर आत्मा उस परमात्मा स्वरूप अमृतरसका पान करने लगती है, जिसे
तीर्थंकर महावीर और उनको देशना १५५