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प्राप्तकर शाश्वत सुख उपलब्ध होता है। आत्मा उस धनकुबेर के पुत्रके समान है, जिसके पास कभी घनकी कमी नहीं होती, चाहे वह अपने उस अक्षय भंडारका दुरुपयोग ही क्यों न करे ।
आत्मोदयका तात्पर्य आत्माके अनन्तगुणोंके विकाससे है। आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यं विद्यमान हैं। इन गुणोंकी अभिव्यक्ति ही आत्मोदय है । महावीरने अष्टम वर्ष की साघनामें आत्मोदय प्राप्त करनेके हेतु अगणित उपसर्गं सहन किये तथा शीत, उष्ण, क्षुधा, तृषा, दंशमशक आदि विभिन्न परीषहोंको समतापूर्वक सहन किया । उन्होंने अपन स्वरूपमें रहकर अक्षय आनन्दका अनुसन्धान किया । आत्माके अतिरिक विश्व के किसी बाह्य पदार्थ में सुखकी परिकल्पना करना भयंकर काम है। सत् और चित् तो प्रत्येक आत्माके पास व्यक्तरूपमें सदा विद्यमान हैं, पर आनन्दगुणकी अभिव्यक्तिको कमी रहती है। अतः जो आत्मोदय प्राप्त कर लेता है, वह सच्चिदानन्द बन जाता है ।
घोर उपसर्गजय
लोहार्गला से महावीरने पुरिमतालपुरकी ओर विहार किया। यहाँ नगरके बाह्य उनमें कुछ समय तक किया। यहां भी महावीरको अनेक प्रकारके उपसर्ग सहन करने पड़े । वग्गुर श्रावकने यहाँ महावीरका सरकार किया तथा विभिन्न प्रकारसे उनकी स्तुति की। महावीर मौनरूपमें अपनी साधना में संलग्न रहे ।
पुरिमतालसे उनाग, गोभूमि होते हुए महावीर राजगृह पधारे और आठवाँ वर्षावास राजगृहमें ही सम्पन्न किया । इस वर्षावासमें उन्होंने चातुर्मासिक तप एवं विविध योगक्रियाओंकी साधना द्वारा आत्मोदय प्राप्त किया ।
महावीर आसन-साधना के साथ आतापना — सूर्यरश्मियोंका ताप लेते, शीतको सहन करते और दिगम्बर रहकर आत्म-साधना करते थे । विभूषा एवं परिकर्म – शरीरकी सभी प्रकारकी साज-सज्जाओंका त्याग करते थे ।
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यथाशक्ति इन्द्रियोंके विषयोंसे बचते; क्रोध, मान, माया और लोभसे बचते; मन, वाणी और शरीरकी प्रवृत्तियों का संयमन करते एवं एकान्त स्थानमें ध्यानस्थ होते थे । मनकी सहज चंचलताको ध्यान द्वारा नियन्त्रित करते थे ।
अष्टम चातुर्मास दिनों में महावीरने चित्तशुद्धिका पूर्ण अभ्यास किया । उन्होंने भ्रमणशील मनको विषयोंसे पृथक कर आत्मस्वरूपपर ही केन्द्रिस
१५६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा