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द्विगुणित हो गया तथा उनके आध्यात्मिक जीवनको सुगन्ध अनन्तगुणेरूपमें वृद्धिंगत होने लगी । अहिंसा और सत्यकी साधना उत्तरोत्तर निर्मल होने लगी । कषाय-भाव उनकी आत्मासे पृथक् होने लगे। विरोधोके प्रति भो उनके हृदयमें करुणाकी सतत धारा प्रवाहित होने लगी ।
मानवताका श्रृंगार
पथ भ्रमित होती हुई मानव सभ्यताको उन्होंने सजाया और सैवारा । दान, शील, तप और भावरूप चतुविष धर्म की साधना द्वारा मानवताको प्रतिष्ठा की । उनके जीवन में किसी भी प्रकारकी गोपनीयता नहीं थी। उनका जीवन पूर्णतया सरल और समरस था। वे अपनी अपाय सकियोंका सर्वोकृष्ट विकास अपने निजी पुरुषार्थ द्वारा करने में संलग्न थे। फलतः उपवास, ध्यान एवं आत्म-चिन्तनकी प्रक्रिया अहर्निश बढ़ रही थी । महावीरको साधना राग-द्वेषके जीतने में प्रवृत्त थी ।
चतुर्थ वर्ष साधनः क्षमाको आराधना
अनवरत साधना के फलस्वरूप महावोरने क्षमाका पूर्ण अभ्यास कर लिया और उनके कर्म-पाश शिथिल होने लगे । अविचल तपने कर्म श्रृंखलाको जर्जरित कर दिया । दीक्षाके चतुर्थ वर्ष में उन्होंने अपने तपको और अधिक तेज बनाया । एकाग्रताके कारण उनकी समस्त आकुलताएँ शान्त हो चुकी थीं। वे शीत, ग्रीष्म और वर्षामें समानरूपसे तपश्चरण करते हुए आत्मसाधनामें रत थे ।
गोशालक : घटित घटनाओं बोध
तपस्वी महावीर चम्पानगरीसे चलकर ग्राम-ग्राम, नगर-नगर घूमते हुए कालायस - सन्निवेशमें पहुँचे । वहाँ पहुँचकर एक खण्डहरमें ध्यानावस्थित हो उन्होंने रात्रि व्यतीत की। एकान्त स्थान समझ गाँवके मुखियाका व्यभिचारी पुत्र किसी दासीको लेकर वहाँ व्यभिचार करनेकी इच्छासे आया मोर व्यभिचार करके वापस जाने लगा । गोशालक इस दृश्यको देख रहा था । अतः उससे न रहा गया और उसने उस दुराचारिणी स्त्रीका हाथ पकड़ लिया ।
जब मुखियाके पुत्रने देखा कि गोशालक उसकी प्रेमिकाका हाथ पकड़े हुए है, तो उसे गोशालकपर बड़ा क्रोष आया और उसने गोशालकको खूब पिटाई की। महावीर ध्यानावस्थित थे, उनका इस प्रकारकी घटनाओंकी ओर ध्यान न था । गोशालक पिटते समय महावीरकी सहायताको आकांक्षा कर रहा था, पर व्यानी महावीर अपने आत्म-चिन्तनमें विभोर थे । गोशालक मन-ही-मन तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : १४५