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महावीरपर क्रुद्ध हो रहा था और सोचता था कि गुरुका कर्तव्य है कि वह कष्टके समय शिष्यकी रक्षा करे। ये गरु तो मेरा कुछ भी उपकार नहीं करते। न तो भोजन-चर्या में इनसे सहायता मिलती है और न अन्य किसी संकटके समय ही । अतएव इस प्रकारके गुरुका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।
गोशालकका मन महावीरसे बगावत कर रहा था, पर संकोच और लज्जावश उनका साथ छोड़ने में भी असमर्थ था ।
दूसरे दिन महावीरने कालायस-सन्निवेशसे पत्रकालयकी ओर विहार किया । यहाँ पहुँचकर महावीर एकान्त स्थानमें ध्यानारूढ़ हो गये और उन्होंनेसामायिकवत ग्रहण कर लिया। वे सोचने लगे-"जीव और पुद्गल भिन्न भिन्न द्रव्य हैं । अनादिकालसे इनकी विजातीय अवस्थारूप बन्धावस्था हो रहो है। इसीसे यह आत्मा नाना योनियोंमें परिभ्रमण करती हुई परका कर्ता बनकर अनन्त संसारी हो रही है। बन्धावस्थाका जनक आस्रव है। यह आस्रव मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योगरूप है। पुद्गल-कर्मोके विपाककालमें जो जीवके राग-द्वेष-मोहरूप अशानमय भाव होते हैं, वे ज्ञानावरणादि कर्मों के आने में नियित है। वे शापानमामि गंगास तीतो सब देवमोहरूप अज्ञानमय भावोंके निमित्त हैं। इस तरह पुद्गलफर्म और जीवके राग-द्वेषादि अशुद्ध भावोंमें निमित्त-नैमित्तिकमाव बना चला आ रहा है। अतएव निमितके हटाने में सम्पूर्ण पुरुषार्थ करना है, जिससे नेमित्तकों (राग-द्वेषादि अशुद्ध भावों) की परम्परा समाप्त होकर सम्यग्दर्शनादि शुद्ध भावोंकी ही सदा परम्परा चले । यतः सम्यग्दृष्टिके मासव और बन्ध नहीं हैं, असः ज्ञानी जीवके अज्ञानभावोंकी अनुत्पत्ति है।"
महावीर आत्म-चिन्तनमें संलग्न थे कि पहले दिन कालायस-सनिवेशमें घटित घटनाकी यहाँ भी पुनरावृत्ति हुई। प्रेमिकाका हाथ पकड़नेके कारण गोशालक यहाँपर भी पीटा गया और उसकी बुरी अवस्था की गयो। निन्थता : कल्याणका मार्ग
पत्रकालयसे चलकर महावीरने कुमाराक-सनिवेशकी मोर विहार किया। यहाँपर चम्पक-रमणीय उद्यानमें महावीर ध्यानास्ट हुए और सामायिकमें प्रवृत्त हो गये। इस उद्यानमें कुछ साधुव्हरे हुए थे, जो वस्त्र और पात्रादि रखते थे।
गोशालकने इन साधुओंसे पूछा-"आप किस प्रकारके साधु हैं, जो वस्त्रादि रखते हैं ?"
साघु-"हम निर्गन्थ है ?" १४६ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा