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गोशालक-"इतना परिगह रखने पर आप कैसे निर्गन्य माने जा सकते हैं ? मालूम पड़ता है कि अपनी आजीविका चलाने लिए बाप लोगान को रच रखा है। निन्थत्व और परिग्रहत्वका तो शाश्वतिक विरोध है। आप लोग देखिए, सच्चे निर्गन्थ तो हमारे धर्माचार्य हैं, जिनके पास एक भी वस्त्र
और पात्र नहीं है। निर्गन्थ सर्वपरिग्रहके त्यागी होते हैं, इनके पास तिल, तुषमात्र भी परिग्रह नहीं रहता । हमारे गुरु महावीर साक्षात् त्याग-तपस्याकी मूत्ति हैं। इनका आदर्श ही साधुओंके लिए अनुकरणीय हो सकता है।" ___ इस प्रकार सग्रन्थ साधुओंको भत्सना कर गोशालक महावीरके पास आया और सगन्थोंके साथ हई चर्चा-वार्ताका उल्लेख किया । पर महावीर तो आत्म-चिन्तनमें रत थे। उन्हें इन बातोंसे क्या मतलब ? उनके लिए तो आत्म-साधना मुख्य थी और अन्य सब गौण। अतः निराकुल साधनाकी वृद्धि करनेमें महावीर सतत प्रवृत्त रहते थे।
इस प्रकार चतुर्थ-वर्ष कठोर तपश्चरण और आत्मानुसंधानमें व्यतीत हुआ। साधना और प्रमामृत
महावीर कुमाराक-सनिवेशसे चलकर चोराक-सनिवेश गये । इस सनिवेशमें पहरेदार चोरोंके भयसे अत्यन्त सतर्क रहते थे। किसी भी अपरिचित व्यक्तिको इस ग्रामकी सीमामें प्रविष्ट नहीं होने देते थे। जब महावीर इस ग्रामकी सीमामें पहुंचे तो पहरेदारोंने उनका परिचय जानना चाहा, किन्तु महावीर मौन थे, उन्होंने अपना परिचय प्रकट नहीं किया। इसपर आरक्षकोंको सन्देह हुआ और उन्होंने उनको चोरोंका गुप्तचर समझकर पकड़ लिया तथा नाना प्रकारके कष्ट दिये । कष्ट सहन करते हुए भी महावीर अडिग थे। उनके हृदयमें शान्ति और समताका अमृत चू रहा था। ___ आरक्षक महावीरको जितनी अधिक साइना देते, महावीर उतने ही अधिक प्रसन्न दिखलायी पड़ते । समसाभावपूर्वक कष्ट सहन करनेसे कमोंकी प्रकृतियां नष्ट हो रही थीं। इनके मनमें न किसीके प्रति राग था और न द्वेष हो । वीतरागताका अनुभव करते हुए आनन्दित हो रहे थे। ___ अचानक सोमा और जयन्ती नामक परिबालिकाओंको महावीरका परिचय प्रास हुआ। वे दोनों घटनास्थलपर पहुंचीं बोर. आरक्षकोंको समझासी हुई कहने लगी--"देवानुप्रिय ! तुम इन्हें नहीं जानते, ये धर्मचक्रवर्ती सिद्धार्थपुत्र महावीर हैं। अपनी साधनाको सफल करनेके लिए मौनरूपसे विचरण कर रहे हैं । अब कोई इन्हें कष्ट पहुंचाता है, तो ये शमामृतका पान करते हैं।
तीर्थकर महावीर और उनकी देशमा : १४७