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ये जितेन्द्रिय और संयमी हैं। वजवृषभनाराष-संहनन होनेके कारण इनकी सहनशक्ति अपार है । इन जैसा त्यागी संन्यासी कोई दूसरा नहीं | आप लोग इन्हें कष्ट देकर पापका बन्ध कर रहे हैं। न ये स्वयं चोर हैं, न घोरोंके मुप्तचर ही हैं। अतः आप इनको छोड़ दीजिये और अपने किये गये अपराधोंके लिये क्षमा याचना कीजिये।" __ आरक्षकोंने महावीरको बन्धन-मुक्त कर दिया और उनके चरणोंमें गिरकर क्षमा याचना की।
वीतरागो महावीरने चोराक-सन्निवेशसे विहार किया और पृष्ठचम्पामें पहुंचे। यहींपर इन्होंने चतुर्य वर्षावास व्यतीत किया । इस चातुर्मासमें महावीरने पूरे चार मासका उपवास रखा और अनेक योगार नों द्वारा तपश्चरण किया। चातुर्मास समाप्त होते ही पारणाके हेतु कयंगलाकी ओर विहार किया। पन्नमवर्ष-साधना : कयंगलामें घटित घटनाएं
तीर्थंकर महावीर निराकुल भावसे क्षुधा-तृषाके परिषह सहन करते हुए आत्मामृतका पान कर तृप्त होते थे । एकाग्रता और ध्यानके कारण उनके रोमरोमसे आत्म-ज्योति प्रस्फुटित हो रही थी। वे कयंगलाके बाहरी उद्यानमें स्थित एक देवालयमें ठहरे। उसके एक भागमें स्थित होकर कायोत्सर्ग कर ध्यानस्थ हो गये। संयोगवश उस देवालयमें रात्रि-जागरण करते हुए कोई धार्मिक उत्सव मनाया जा रहा था। अतः सन्ध्याकालसे ही नगरके स्त्री-पुरुष एकत्र हो गये। गायन-वादन और नृत्यको योजना की गयी। देवालयमें शोरगुल होने लगा और वहाँका शान्त वातावरण अशान्तिमें परिणत हो गया।
गोशालकको देवालयका यह धूम-धड़ाका अच्छा नहीं लगा और वह उनलोगोंकी निन्दा करने लगा। महावीर तो समत्वकी साधना करते हुए आस्मध्यानमें लीन रहे । उन्हें आज समायिक में इतना आनन्द आया कि वे सन-बदनकी सुध भूल गये प्रामवासियोंने गोशालक द्वारा जब अपनी निन्दा सुनी, तो वे क्रोधसे आग बबूला हो गये और उन्होंने उसी समय गोशालकको देवालयसे निकाल बाहर किया । गोशालक रासभर बाहर शीतसे कांपता रहा और ग्रामवासियोंको गालियाँ बकता रहा । वस्तुतः कयंगलामें कुछ पाखण्डी निवास करते थे, जो सपत्नीक और आरम्भ-परिग्रही थे। इन्हीं लोगोंने धार्मिक उत्सवकी योजना की थी। इस उत्सवमें गायक और वादक भी दूर-दूरसे एकत्र हुए थे। गोशालककी अवस्था शीतके कारण बिगड़तो जारही थी और वह बड़बड़ता हुआ शीतजन्य बाधाको सहन कर रहा था। उपस्थित व्यक्तियोंमेंसे किसीको उसपर दया आयो और वह बोला---''यह देवायंका सेवक है । इसे कष्ट पहुंचाना उचित १४८ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा