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मिक्षाके लिए गया हुआ था । भिक्षासे वापस लौटनेपर उसे महावीरके विहारका समाचार मिला, अतः वह उनकी तलाश करता हुआ कोल्लाग सन्निवेश पहुँचा । इसके पश्चात् गोशालक छः चातुर्मासों तक उनके साथ रहा। महावीर मौन रूप में साधना करते रहे ।
तृतीयवर्ष -साधना : विकार - शमन
साधनाका लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण प्राप्ति है। जीवन मरणके दुःखसे मुक्त होना ही साधनाका केन्द्रबिन्दु है । इस साधना के दो रूप हैं - (१) बाह्य साधना, (२) अन्तरंग साधना । बाह्य साधना में शरीर और इन्द्रियोंको तपाकर साधित किया जाता है । आन्तरिक साधना में मनको साधित कर वायुके समान मनको चंचल गतिको वश कर केन्द्रबिन्दु आत्मापर स्थिर किया जाता है । साधनाका सम्यक् होना आवश्यक है और सम्यक्का अर्थ है साघनाका आत्मभिमुखी होना । जब साधना आत्माभिमुखी हो जाती है, तब स्व-परका भेदज्ञान प्रकट हो जाता है ।
महावीरकी तृतीय वर्ष सम्बन्धी साधना आत्माकी साधना थी, वे आत्मविकासका प्रयास कर रहे थे । वे शुभ रूपमें अपने रागका ऊर्ध्वमुखी विकास करते हुए पूर्ण वीतरागी बनने के हेतु प्रयत्नशील थे ।
महावीर कोल्लाग सन्निवेशसे विहार करते हुए ब्राह्मणगांव पहुंचे। यहाँपर महावीरकी पारणा निरन्तराय सम्पन्न हुई, किंतु गोशालकको भिक्षामें वासी भात मिला, जिसे लेनेसे उसने इनकार कर दिया और भिक्षा देनेवाली स्त्रीकी मर्त्सना करते हुए बोला ---" बासी भात देते हुए तुझे लज्जा नहीं आती । किसी साधुको कैसी भिक्षा देनी चाहिए, यह भी अभी तक ज्ञात नहीं है । साधुकी साधना भोजन के अभाव में चल नहीं सकती है, अतएव साधुको पुष्ट और हितकर अहार देना चाहिए। मैं तुम्हारो अज्ञानतापर पश्चात्ताप कर रहा हूँ और तुम्हें अभिशाप देता हूँ कि आजसे साधुओं को शुद्धाहार देना, अन्यथा तुम्हारा नाश हो जाएगा ।"
इस प्रकार कहकर भिक्षा बिना लिये गोशालक चल दिया। गोशालकने यहाँ रसना - इन्द्रियको जीतने का संकल्प किया 1
ब्राह्मणगांव से चलकर महावीर चम्पानगरी गये और तीसरा चातुर्मास यहीं पर व्यतीत किया । इस वर्षावासमें महावीरने दो-दो मास उपवास किये । कर्मनिर्जराके हेतु अट्ठाइस मूलगुणोंका पालन करते हुए वे आत्म-शोधनमें प्रवृत्त हुए । महावीर के वज्रवृषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थानका सौंदर्य १४४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा