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मुनि नहीं माना जा सकता है।" इसी बीच कहींसे किन्नर-किन्नरीकी गीत-ध्वनि सुनायी पड़ी, जिससे सोमदत्तका मन चंचल हो उठा और उसे रह-रहकर अपनी पत्नीकी याद सताने लगी। राग और मोहने उसके विवेकको अन्धा बना दिया । घर जानेके लिये उसनानपत्रल इला
वारिषेणने जब सोमदत्तको विह्वल देखा, तो उसने उसे रोका नहीं । बल्कि कहा-"सोमदत्त ! घर जाना चाहते हो, तो चलो, पर पहले हमारे घर होकर, तुम्हें अपने घर जाना होगा। सोमदत्तने चारिषेणकी बात स्वीकार कर ली। राजप्रासादमें दोनों मुनि पहुँचे । महारानी चेलना मुनियोंको आया हुआ जानकर आश्चर्य चकित हुई। यतः दिगम्बर मुनि आहार-बेलाके अतिरिक्त किसी भी गुहस्थके घर नहीं जाते । परीक्षाके लिये चेलनाने दो आसन बिछाये-एक प्रासुक और दूसरा रत्न-जटित । वारिषेण प्रासुक आसनपर स्थित हो गये, पर सोमदत्तके पास यह विवेक नहीं था। अतः वह रत्नजटित आसनपर स्थित हो गया । अनन्तर वारिषेणने कहा-“मौ! हमारी पत्नियोंको श्रृंगार करके यहां बुलाइये।" चेलनाने हाँ तो किया, परन्तु उसका हृदय सशंक हो घड़कने लगा-क्या उसका पुत्र मुनिधर्मसे पतित हो रहा है ?
चेलनाने धर्म में दृढ़ करनेके हेतु वारिषेणको धर्म-कथा सुनायी। वह कहने लगी-"सुभद्रा ग्वालिनका पुत्र सुभद्र था । वह गाय चराकर अपनी आजीविका सम्पन्न करता था। एक दिन उसके साथी ग्वालोंने उसे खीर खिलायी । सुभद्रको यह खीर बहुत अच्छी लगी । उसने घर आकर अपनी मांसे आग्रह किया कि में खीर अवश्य खाऊँगा। गरीब माने पुत्रके दुराग्रहको पूरा करनेके लिये इधर-उधरसे सामान एकत्र किया और खीर बनायी। रसनालोलपी सुभद्रने खूब खीर खायी और इतनी अधिक खायी, जिससे उसे वमन होने लगा। वह खीर खाता जाता और वमन करता जाता था। अब खीर समाप्त हो गयी और मकि पास खिलानेके लिये अवशिष्ट न रही, तो वमन की गयी खीरको ही उसके सामने रख दिया । रसना-लम्पटीने उसे भी खा लिया । मुनिवर ! क्या सुभद्रने यह ठीक किया ?"
वारिषेण चेलनाके अभिप्रायको समझ गया। उसकी धार्मिकता और विनयभावनासे प्रसन्न होकर वारिषेण कहने लगा--"उज्जयिनीमें वसुपाल राजा रहता था और वसुमती नामको उसकी रानी थी । दोनोंमें प्रगाढ़ प्रेम था। एक दिन रानीको सर्पने डंस लिया। मंत्रवादी बुलाये गये। एक मंत्रवादीने उस सर्पको बुला लिया, जिसने रानीको डंसा था। परन्तु वह सर्प इतना क्रोधी था कि उसने रानीको निर्विष नहीं किया । उसने स्वयं अग्निमें जल मरना उचित
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २२५