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देखकर उसका सखाभाग जागृत हो उठा। उसने बड़े भक्ति भावपूर्वक उन्हें आहार दिया | वारिषेणने भी मित्रका सच्चा हित साधा। उनके उपदेवासे वह साधु हो गया । सोमदत्त भुनि तो बन गया और दिगम्बर- दीक्षा भी उसने ग्रहण कर ली, पर उसका मन ममता में फँसा रहा। वह बोला - "मित्र ! स्मरण है यह लता-कुंज, जहाँ हम और आप मिलकर केलि करते थे। मधुर संगीत आलाप कर आनन्द-विभोर हो जाते थे। क्या महावीरके संघमें केलि-क्रीड़ाजन्य मानन्द है ?"
वारिषेण मुस्कुराकर कहने लगे- "सोमदत्त ! यह तो तुम अभी कलकी बात कह रहे हो । पर याद करो, न जाने कितने अनन्त जन्मोंमे श्रोत्र - इन्द्रियको प्रिय लगनेवाली संगीत- लहरी हमने तुमने सुनी होगी। क्या उससे तृप्ति हुई ? नहीं, उसको सुननेसे ही केवल तृष्णा बढ़ी है। आशा और तृष्णा हो तो संसारपरिभ्रमणका कारण है । इन्हींसे मन दुषित होता है और दूषित वस्तुमें आनन्द कहाँ ?"
"महावीरका संघ कल्याण धाम है, शान्ति-निकेशन है और है जन्म-मरणकी परम्परासे छुड़ानेका साधन । वे दोनों मुनि तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें लौट आये। सोमदत्तका मन पवित्र हो गया। उसके विकार क्षीण होने लगे, मोह गलने लगा और आत्म-शान्तिकी प्रतीति होने लगी। वह सोचने लगावारिषेणका कथन यथार्थं था । वीरप्रभुकी निकटता संसार-तापको दूर करनेबाली है।"
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"दोनों मुनियोंने बड़े भक्ति-भावसे तीर्थंकर महावीरकी वन्दना, स्तुति की और संघ के समस्त साधुओंको 'नमोस्तु' किया ! वारिषेण अपने योग्य आसनपर आसीन हुए और सोमदत्त भी उनके पास ही बैठ गया। एक वरिष्ठ साधुने सोमदत्तको सम्बोधित करते हुए कहा- "तुम बड़े पुष्पात्मा और विशुद्ध हृदय हो, जो तुम्हें तीर्थंकर महावीरका समवशरण प्राप्त हुआ। महती तपस्या करने की तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो !"
"पाश्व में स्थित एक अन्य साधुको यह कथन असा प्रतीत हुआ । अतः वह क्रुद्ध होकर कहने लगा- "यह मूढ़ क्या तपस्या करेगा ? इसे आगमका सामान्य ज्ञान भी नहीं है । यह तो अपनी काली-कलूटी स्त्रीकी यादमें दुबला होता जा रहा है। विषय-वासनाओं के विकारका त्याग किये बिना कोई साधु नहीं हो सकता है। जिस प्रकार केंचुलका त्यागकर देनेपर भी विष-विकारके अस्तित्व के कारण सर्प शान्त नहीं माना जा सकता है, उसी प्रकार बहिरंग परिग्रहका त्याग कर देनेपर भी अन्तरंग विकारोंके सद्भावके कारण कोई २२४ : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा