________________
समझा। अब विचार कीजिये कि उस सपंका हठ कहाँ तक उचित था? अभंपालनके लिये दृढ़ता दिखलाना सो उचित है, पर विकारोंकी वृद्धि के लिये हठ करना कहाँ तक उचित है ?"
महारानी चलना और यारिषेणका कथा-प्रसंग चल रहा था; इसी समय अन्तःपुरसे शृंगार किये हुए वारिषेणकी सभी पत्तियां आ गयीं। वे अनुपम सुन्दरी थीं। पति-आगमनको प्रसन्नताने उनके सौन्दर्यको कई गुणा विकसित कर दिया था। वे आयीं और नमस्कार कर बैठ गयीं । वारिषेणने सोमदत्तसे कहा--"मित्र देखते हो, ये रमणियों कैसी सुन्दर हैं ? ये तम्हारी पत्नीसे अधिक सुन्दर हैं या नहीं? यदि प्रणय वासना जागृत हो गयी है, तो इन्हींके साथ रमणकर तुम अपने कषायभावको शान्त करो। घर जाफर क्या करोगे ? इतनी सौन्दर्य-राशि तुम्हें घर में नहीं मिल सकती है।" वारिषेणका तीर काम कर गया। सोमदत्तके पैरों तरू से सीखिसक जी । वह लेना और पश्चातापसे गलने लगा । वारिषेणके त्यागने उसके विवेक-नेत्रोंको खोल दिया। यह बोला-"आप धन्य हैं। आपका धैर्य और त्याग श्रेष्ठ है। आप सत्यवीर है, शीलसम्पन्न हैं और हैं इन्द्रियजयी । आप जैसे मित्रने आज मेरे हृदयके कपाट खोल दिये हैं। मेरी ममता-मूर्छा गल गयी और मेरा मिथ्यात्व नष्ट हो गया। अब मुझे सम्यकत्वकी प्राप्ति हो गयी है। मेरा चंचल मन स्थिर हो गया है । अब आप शीघ्र ही यहाँसे चलिये । एक क्षण भी यहाँ ठहरना कठिन है।"
दोनों मुनि तीर्थंकर महावीरके समवशरणमें आये और वहां उन्होंने वारिषेणके स्थितिकरणकी कथा सुनी। नवदीक्षित मुनि सोमदत्त अपना विवेक खो बैठे, यह कोई नयी बात नहीं। इन्द्रियोंके विषय इन्द्रायनफल जैसे सुन्दर और मोहक होते हैं । परन्तु उनका परिपाक कटु होता है। मुढद्धि तत्त्वको नहीं पहचान पाता है और विषयों में आसक्त हो जाता है । वारिषेणने धर्मका आदर्श रूप उपस्थित किया है। उन्होंने गिरतेको गिरनेसे रोका है और गिरे हएको उठाया है । यही सम्पदृष्टिका लक्षण है। स्थितिकरण और उपबृंहण सम्य. कत्वके अंग हैं । सम्यकदृष्टि पापसे घृणा करता है, पापीसे नहीं । उसके हृदयमें साधर्मीके प्रति अपार वात्सल्य रहता है। लोक-कल्याणको भावना भी उसीमें रह सकती है, जिसका हृदय उदार और विशाल है।
सोमदत्तने गुरुदेवसे प्रायश्चित्त ग्रहण किया और मुनिधर्मके पालन करने में वह दृढ़ हो गया।
तीर्थकर महाबीरके समवशरणने अनेक राजा-महाराजा और सम्भ्रान्त २२६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा