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एवं राजनीतिक ढांचा लोकहितको भावनापर आश्रित है, तथा सामाजिक उन्नति और विकासके लिये सभीको समान अवसर प्राप्त हैं । अत: अहिंसा, दया, प्रम, सेवा और त्यागके आधारपर सामाजिक सम्बन्धोंका निर्वाह कुशलतापूर्वक सम्पन्न होता है।
अपने योग-क्षेमके लायक भरण-पोषणकी वस्तुओंको ग्रहण करना तथा परिश्रम कर जीवन यापन करना, अन्याय, अत्याचार द्वारा धनार्जन करने का त्याग करना एवं आवश्यकतासे अधिक संचयन करना स्वस्थ समाजके निर्माणमें उपादेय हैं। अहिंसा और सत्यपर आत समाजव्यवस्था मनुष्यको केवल जीवित ही नहीं रखती, बल्कि उसे अचमा जीवन यापनके लिये प्रेरित करती है। मनुष्यको शक्तियोंका विकास समाज में ही होता है । कला, साहित्य, दर्शन, संगीत, धर्म आदिकी अभिव्यक्ति मनुष्यको सामाजिक चेतनाके फलस्वरूप ही होती है । ज्ञानका आदान-प्रदान भी सामाजिक सम्बन्धोंके बीच सम्भव होता है ! समाजमें ही समुदाय संघ और संस्थाएँ बनती हैं।
निसन्देह समाज एक समनता है और इसका गठन विशिष्ट उपादानोंके द्वारा होता है। तथा इसके भौतिक स्वरूपका निर्माण भावनोपेत मनुष्योंके द्वारा होता है। इसका आध्यात्मिक रूप विज्ञान, कला, धर्म, दर्शन आदिके द्वारा सुसम्पादित किया जाता है । अतः समाज एक ऐसी क्रियाशील समग्रता है, जिसके पीछे आध्यात्मिकता, नैतिक भावना और संकल्पात्मक वृत्तियोंके संश्लेषोंका रहना आवश्यक है। सामाजिक संस्था : स्वरूप और प्रकार
समाजके विभिन्न आदर्श और नियन्त्रण जनरीतियों, प्रथाओं और रूढ़ियों के रूपमें पाये जाते हैं। अतः नियन्त्रणमें व्यवस्था स्थापित करने एवं पारस्परिक निर्भयता बनाये रखनेके हेतु यह आवश्यक है कि उनको एक विशेष कार्यके आधारपर संगठित किया जाय। इस संगठनका नाम ही सामाजिक संस्था है। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आवश्यकताकी पूर्ति के हेतु सामाजिक विरासतमें स्थापित सामूहिक व्यवहारोंका एक जटिल तथा धनिष्ट संघटन है। मानव सामूहिक हितोंकी रक्षा एवं आदर्शोके पालन करने के लिये सामाजिक संस्थाओंको जन्म देता है । इनका मूलाधार निश्चित आचार-व्यवहार और समान हित-सम्पादन है । अधिक समय तक एक ही रूपमें कतिपय मनुष्यों के व्यवहार और विश्वासोंका प्रचलन सामाजिक संस्थाओंको उत्पन्न करता है। ये मनष्योंकी सामहिक क्रियाओं, सामूहिक हितों, आदर्शों एवं एक ही प्रकारके रीति-रिवाजोंपर अव५९८ : तीर्थंकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा