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अणुव्रत
हिसा, असत्य, चोरी, कुशील और मूर्च्छा - परिग्रह इन पांच दोष या पापोंसे स्थूलरूप या एक देशरूपसे विरत होना अणुव्रत हैं । अणुशब्दका अर्थ लघु या छोटा है । जो स्थूलरूपसे पंच पापोंका त्याग करता है, वही अणुव्रतका घारी माना जाता है । अणुव्रत पाँच हैं
(१) अहिंसाणुव्रत ---स्थूलप्राणातिपातविरमण – जीवोंकी हिंसासे विरत होना अहिंसाणुव्रत है। प्रमत्तयोगसे प्राणों के विनाशको हिंसा कहा जाता है । प्रमत्तयोगका अभिप्राय राग-द्वेषरूप प्रवृत्तिसे है । यहाँ प्रमत्तयोग कारण है और प्राणोंका विनाश कार्य । प्राण दो प्रकार के होते हैं: ---- (१) द्रव्यप्राण और (२) भावप्राण । प्रमत्तयोगके होनेपर द्रव्यप्राणोंके विनाशका होना नियमित नहीं है । हिंसाके अन्य भी निमित्त हो सकते है । पर प्रमत्तयोग से भावप्राणोंका विनाश होता है और भावप्राणों का विनाश हो यथार्थ में हिंसा है। राग-द्वेषकी प्रवृत्ति हिंसा है और निवृत्ति अहिंसा । वस्तुतः संसार में न कोई इष्ट होता है, न कोई अनिष्ट, न कोई भोग्य होता है और न कोई अभोग्य | मनुष्यका राग-द्वेष ही संसारको इष्ट और अनिष्ट रूपमें दिखलाता है" । इष्टसे राग और अनिष्ट से द्वेष होता है। अतः राग-द्वेषके अवलम्बनरूप बाह्य पदार्थों का त्याग आवश्यक है । हिंसाका कारण राग-द्वेषरूप परिणति ही है । अतएव अहिंसाका पालन आवश्यक है । इसीके द्वारा मनुष्यताको प्रतिष्ठा सम्भव है । अत्याचारीकी इच्छा के विरुद्ध अपने समस्त आत्मबलको लगा देना हो संघर्षका अन्त करना है और यह अहिंसा है। अहिंसा ही अन्याय और अत्याचार से दीन-दुर्बलोंकी रक्षा कर सकती है । यही विश्व के लिये सुखदायक है ।
हिंसा विश्व में शान्ति और सुखकी स्थापना नहीं कर सकती । प्रत्येक प्राणीको यह जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त है कि वह स्वयं सुखपूर्वक जिये और अन्य प्राणियों को भी जीवित रहने दे । आजका मनुष्य स्वार्थ और अधिकारके वशीभूत हो स्वयं तो सुखपूर्वक रहना चाहता है, पर दूसरों को चेन और शान्ति से नहीं रहने देता है । अतएव अहिंसाणुव्रतका जीवनमें धारण करना आवश्यक है | अहिंसाका अर्थ मनसा, वाचा और कर्मणा प्राणीमात्रके प्रति सद्भावना और प्रेम रखना है । दम्भ, पाखण्ड, ऊंच-नोचको भावना, अभिमान, स्वार्थबुद्धि, छल-कपट प्रभूति भावनाएं हिंसा हैं। अहिंसा में त्याग है, भोग नहीं ।
१. रागद्वेषी प्रवृत्तिः स्यानिवृत्तिस्तम्निषेधनम् ।
तोच बाह्यार्थसंग तस्मात्तान् सुपरित्यजेत् ॥ आत्मानुशासन, श्लोक २३७. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ५१५