________________
कल्याणकी भावनाकी सूचना लगनस्थ मंगलसे प्राप्त होती है । लग्न स्थानमें उच्चका मंगल उपसर्ग और परीषड्जयी होनेकी ओर इंगित करता है ।
तीर्थंकर महावीरके विभिन्न नाम तर महावीरके प्रतिरिक्त अन्य भी कई नाम थे । इनकी माताने इन्हें 'विदेह दिन' और 'वेशालिक' नाम दिये । पितृवंशकी परम्परान 'ज्ञातृपुत्र' के नामसे उन्हें प्रसिद्ध किया ! ये 'अतिवीर' और 'निग्रन्थ' भी कहलाते थे । उनका एक नाम 'सन्मति' था, जिसके साथ एक घटना जुड़ी है, जो बड़ी रोचक और प्रेरक है !
तीर्थंकर महावीरकी अवस्था अभी पांच या छः वर्षकी थी कि वे एक दिन झूला झूल रहे थे । आकाशमार्ग से दो चारण ऋद्धिधारी मुनि जा रहे थे । इन मुनियों में एकका नाम संजय और दूसरेका विजय था । इन्हें अनेक ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ प्राप्त थीं । महावीरको झूलते हुए देखकर इन मुनियों के मन में शंकाएँ उत्पन्न हुईं। अतएव वे उनकी परीक्षाके हेतु महावीर के निकट पहुँचे, पर जैसे ही उन्होंने उनका दिव्य दर्शन किया, वैसे ही दर्शनमात्रसे उनके मनकी शंकाएँ निराकृत हो गयीं । शंकाओंके दूर होनेसे उन मुनियों का मन भक्ति-विभोर हो गया और वे तीर्थंकर महावीरकी स्तुति करते हुए कहने लगे कि इस बालकका नाम अब 'सन्मति' होगा'। उसी दिनसे इनका नाम 'सन्मति' पड़ गया ।
I
निर्भयताका प्रतीक महावीर
बाल्यकाल से ही महावीर अत्यन्त निर्भय थे । आठ वर्षको अवस्था में वे अपने समवयस्क साथियोंके साथ उद्यानमें कीड़ा कर रहे थे । सौधर्म इन्द्रकी सभा में महावीर के पराक्रम और वीरताका प्रसंग छिड़ा हुआ था । इन्द्रने कहा --- बालक महावीर शैशवकाल से अत्यन्त साहसी और पराक्रमी हैं । देव, दानव और मानव कोई भी उन्हें पराजित नहीं कर सकता ।
संगम नामक देवको इन्द्रके कथनपर विश्वास नहीं हुआ, अतएव वह वद्धमान महावीरकी परीक्षा करनेके लिये चल पड़ा ।
१. संजयस्यार्थसन्देहे संजाते विजयस्य च ।
जन्मानन्तरमेवमभ्येत्या लोकमात्रतः || तरसन्देहे गते ताभ्यां वारणाभ्यां स्वभक्तिः । अस्त्वेष सम्मतिदेवो भावीति समुदाहृतः ॥
-- उत्तरपुराण ७४।२८२-२८३. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना १०९