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महावीर वाटिकामें अपने मित्रोंके साथ आँख-मिचौनी खेल रहे थे । संगमदेवने भयंकर विषधरका रूप धारण किया । वह देखने में अत्यन्त कृष्ण वर्ण और भयानक था। पह-प्रकट होते ही फन फेलाकर फुफकारसा हा उस आमलकी वृक्षको ओर दौड़ा, जिस वृक्षपर महावीर अपने साथियोंके साथ क्रीड़ारत थे। वह भयंकर नाग वृक्षके तनेसे लिपट गया। उपस्थित सभी बालक सर्पको देखकर आतंकित हुए और वे इधर-उधर भागने लगे, पर महावीर डरे नहीं, वह हिमालयकी भांति अडिग खड़े रहे। उन्होंने अपने साथियों को धैर्य देते हुए कहा-आप लोग घबड़ायें नहीं, में इसे अभी उठाकर दूर फेंक देता हूँ । बालकोंके मना करने पर भी महावीरने उस भयंकर नागको पकड़कर दूर कर दिया और सभी बालक प्रसन्न होकर पुनः क्रीड़ामें जुट गये ।
उपर्युक्त घटनाके घटित होनेपर भी संगमदेवको संतोष नहीं हुआ। अत: वह समवयस्क बालकका रूप धारण कर उन्हींके साथ क्रीड़ा करने लगा। इस बार तिन्दुशक नामक खेल आरम्भ हुआ। इस खेलमें दो बालक एकसाथ लक्षित वक्षकी ओर दौड़ते और इन दोनोंमेंसे जो वृक्षको पहले छ लेता वह विजयी माना जाता। विजयी बालक पराजितपर सवार होकर मूल स्थान पर आता।
महावीर और छपवेशधारी संगमदेव एकसाथ दौड़े। महावीरने वृक्षको पहले छू लिया। खेलके नियमानुसार पराजित संगमको सवारीके लिये उपस्थित होना पड़ा । महावीर उसपर सवार होकर जैसे ही नियत स्थानपर आने लगे, देवने सात ताड़के बराबर उन्नत और भयावह शरीर बनाकर महावीर को आतंकित करना चाहा । इस दृश्यको देखकर सभी पालक भयभीत हुए, पर महावीर सोचने लगे-अवश्य ही कोई मायावी देव-दानव है, जो मुझे डराना चाहता है। उन्होंने उसको पीठपर अत्यन्त दृढ़ मुष्टि प्रहार किया; आघाससे संगमदेव चीख उठा और गेंदके समान फूला हुआ उसका शरीर दबकर छोटा हो गया। महावीरके इस धैर्य और पराक्रमको देखकर संगमदेव
१. देवानामधुना शूरो वीरस्वामीति तच्छुतेः ।
देवः संगमको नाम संप्राप्तस्तं परीक्षितुम् ॥ दृष्ट्वोधामवने राजकुमारहुभिः सह । काकपक्षधरैरेकवयोभिल्यिचोदितम् ॥ कुमार भास्वराकारं दुमक्रीडापरायणम् ।
स विभीषयितुं वाञ्छम् महानागाकृति दषत् ।। ११० : सोपंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा