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आडम्बर उसके पास नहीं रहता । सिर, दाढ़ी, मूछोंके केशोंको द्वितीय, चतुर्थ और छठे महीनोंमें वह अपने हाथ से उखाड़ डालता है। साधुका अन्य आचार
मुनि-आचार या साधु-आचारका पालन करनेके लिये गुप्ति, समिति, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्रका पालन करना भी आवश्यक है। योगोंका सम्यक् प्रकारसे निग्रह करना गुप्ति है। गुप्तिका जीवनके निर्माणमें बड़ा हाथ है, क्योंकि भावबन्धनसे मुक्ति गुप्तियों के द्वारा ही प्राप्त होती है । गुप्ति प्रवृत्तिमात्रका निषेध कहलाती है। शारीरिक क्रियाका नियमन, मौन धारण और संकल्प-विकल्पसे जीवनका संरक्षण क्रमशः काय, वचन और मनोगुप्ति है।
जब-तक शरीरका संयोग है, तब-तक क्रियाका होना आवश्यक है । मुनि गमनागमन भी करता है 1 आचार्य, उपाध्याय, साधु या अन्य जनोंसे सम्भाषण मी करता है, भोजन भी लेता है। संयम और शानके साधनभत पिच्छि, कमण्डलु और शास्त्रका भी व्यवहार करता है और मल-मूत्र आदिका भी त्याग करता है। यह नहीं हो सकता कि मुनि होनेके बाद वह एक साथ समस्त क्रियाओंका त्याग कर दे। अतः वह पांच प्रकारको समितियोंका पालन करता है । जीवनमें पूर्णतया सावधानी रखता है।
मुनि कर्मो के उन्मूलन और आत्मस्वभावकी प्राप्तिके हेतु, उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जब, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप उत्तम त्याग, उत्तम आफिचत्य और उत्तम ब्रह्मचर्यका पालन करता है। उत्तम क्षमाका अर्थ है-क्रोधके कारण मिलनेपर भी क्रोध न कर सहनशीलता बनाये रखना । भीतर और बाहर नम्रता धारण करना एवं अहंकारपर विजय पाना मार्दव है। मन-वचन और कायकी प्रवृत्तिको सरल रखना आजव है। सभी प्रकारके लोभका त्यागकर शरीरमें आसक्ति न रखना शौच है । साधु पुरुषोंके लिये हितकारी वचन बोलना सत्य है। षट्कायके जीवोंकी रक्षा करना
और इन्द्रियोंको विषयोंमें प्रवृत्त नहीं होने देना संयम है । शुभोद्देश्यसे त्यागके आधारभूत नियमोंको अपने जीवन में उतारना तप है। संयतका ज्ञानादि १. जबजादस्वावं उपाडिदकेसमंसुगं सुद्धं ।
रहिद हिंसादीवो अप्पडिकम्मं हदि लिंग ॥ मुच्छारंभविजुतं जुत्तं उवजोगजोगसुखोहिं । लिंग ण परावेषस्त्र अपुणभवकारणं हं ॥
--प्रवचनसार, गाथा २०५-२०६. ५३२ : तीर्थकर महावीर और उनको आचार्य-परम्परा