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गुणों का प्रदान करना त्याग है । शरोर और परवस्तुओंसे ममत्व न रखना आकिंचन्य है | स्त्री-विषयक सहवास, स्मरण और कथा आदिका सर्वथा त्याग करना ब्रह्मचर्य है ।
संसार एवं संसारके कारणोंके प्रति विरक्त होकर धर्मके प्रति गहरी आस्था उत्पन्न करना अनुप्रेक्षा है । अनुप्रेक्षा का अर्थ है, पुनः पुनः चिन्तन करना | साधु या अन्य आत्मसाधक व्यक्ति संसार और संसारकी अनित्यता आदि विषयमें और साथ ही आत्मशुद्धिके कारणभूत भिन्न-भिन्न साधनोंके विषय में पुनः पुनः चिन्तन करता है, जिससे संसार और संसारके कारणोंके प्रति विरक्ति उत्पन्न होती है और धर्मके प्रति आस्था उत्पन्न होती है । मधुप्रेक्षाएँ निर्णय बाद है-
(१) अनित्य - शरीर, इन्द्रिय, विषय और भोगोपभागको जलके बुलबुलेके समान अनवस्थित और अनित्य चिन्तन करना । मोहवश इस प्राणीने परपदार्थोको नित्य मान लिया है, पर वस्तुतः आत्माका ज्ञान दर्शन और चैतन्य स्वभाव ही नित्य है और यही उपयोगी हैं ।
(२) अशरण – यह प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियोंसे घिरा हुआ है । यहाँ इसका कोई भी शरण नहीं है । कष्ट या विपत्तिके समय धर्मके अतिरिक्त अन्य कोई भी रक्षक नहीं है। इसप्रकार संसारको अशरणभूत विचार करना अशरणानुप्रेक्षा है |
( ३ ) संसारानुप्रेक्षा – संसार के स्वरूपका चिन्तन करना तथा जन्म-मरणरूप इस परिभ्रमण में स्वजन और परिजनकी कल्पना करना व्यर्थ है । जो साधक संसार के स्वरूपका चिन्तनकर वैराग्य उत्पन्न करता है, वह संसारानुप्रेक्षाका चिन्तक होता है ।
(४) एकत्वानुप्रेक्षा में अकेला ही जन्मता हूँ और अकेला ही मरण प्राप्त करता है । स्वजन या परिजन ऐसा कोई नहीं जो मेरे दुःखोंको दूर कर सकते हैं, इस प्रकार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है ।
(५) अन्यत्वानुप्रेक्षा - शरीर जड़ है, में चेतन हूँ। शरीर अनित्य है, मैं नित्य हूँ । संसार में परिभ्रमण करते हुए मैंने अगणित शरीर धारण किये, पर मैं जहाँ का तहाँ हूँ। जब मैं शरीरसे पृथक् हूँ, तब अन्य पदार्थों से अविभक्त कैसे हो सकता हूँ ? इस प्रकार शरीर और बाह्य पदार्थोंसे अपनेको भिन्न चिन्तन करना अभ्यस्वानुप्रेक्षा है ।
(६) अशुचित्वानुप्रेक्षा - शरीर अत्यन्त अपवित्र है। यह शुक्र, शोणित तीथंकर महावीर और उनकी देशमा ५३३