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"जिस शरीरपर मनुष्य अभिमान करता है, वह शरीर भी विविध प्रकारके रोगोंसे आक्रान्त है । क्रीड़ाओं और व्यथाओंका भाण्डार है । न जाने कब और किस समय कहाँपर उसमेंसे रोग फूट पड़ेंगे। अतएव मुझे ऐसे लक्ष्य तक पहुँचना है, जहां वैषम्यका प्रश्न नहीं । सबकुछ समत्वके वातावरणमें स्पन्दित है।" ___"मैं शोषित, पीड़ित और सन्तप्तोंके मध्य भोगरत जीवन-यापन करना अपराध मानता हूँ | पिताजी ! क्या इस व्यापक दरिद्रता और जड़ताके रहते हुए, मुझे समलियोंके बीच विलास-मग्न होनेका अधिकार है ? मैं इस मर्त्यजीवनसे अमतत्वको प्राप्त करना चाहता हूँ। यह अमतत्व ही आत्मतत्त्व है। अविनाशी है, नित्य है और शाश्वत है। यह आस्मा ज्ञान, दर्शन, चारित्रमय है । आलोक या प्रकाश-पुञ्ज है ।" ।
"मेरे जीवनका लक्ष्य संसारको शान्ति प्रदान करना है। मैं इन भूले और भटके हुए प्राणियोंको सम्मान प्रवृत्त करना चाहता हूं : अहिंसा, सत्य और अचौर्य आदिके द्वारा मानवमें मानवताकी प्रतिष्ठा करना चाहता हूँ | अतएव आपका भव्य आशीर्वाद मेरो साधनाके पथको आलोकित करेगा।"
महाराज सिद्धार्थ महावीरके विचारोंको सुनकर पुलकित हो उठे । उनका पितृत्व धन्य हो गया । वे बाल्यकाल से ही महावीरकर सम्मान करते थे और उनमें पूर्ण व्यक्तित्वका दर्शन करना चाहते थे। उन्हें विश्वास हो गया कि महावीर अविवाहित रहकर ही विश्वका कल्याण करेंगे। उनका कार्यक्षेत्र परिवार और वैशाली-गणतन्त्र तक ही सीमित नहीं रहेगा, अपितु वे पूरे विश्वको अपने आलोकसे आलोकित करेंगे। अतएव उन्होंने महावीरको उनके उच्च विचारोंपर मौन स्वीकृति प्रदान की। सिद्धार्थका पितृत्व भावी तीर्थकरत्वसे पराजित हुआ । मासाको विबलता
पुत्रको विरक्त अवगत कर सिद्धार्थने तो किसी प्रकार धैर्य धारण किया, पर माताकी विह्वलता अभी भी ज्यों-की-त्यों अक्षुण्ण थी। माताको आशा थी कि महावीर अभी विवाहके पक्षमें भले ही न हों, पर आगे वह मेरा आग्रह स्वीकार कर लेगा ! माताके वात्सल्यको ठुकराना संभव नहीं है। अतएव त्रिशला हृदयका साहस एकत्र कर पुत्रके विचार-परिवर्तनकी प्रतीक्षा करने लगी। वह पुत्र-परिणयके दृश्यका काल्पनिक आनन्द लेती हुई रोमांचित होने लगी। वह सोचती-महावीर वयमै कम, परंतु प्रज्ञा और प्रतिभामें ज्येष्ठ है । उन
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १२५