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किनी फूट पड़ी । कोटि-कोटि जन उन्हें भगवान्, तीर्थकर, पुरुषोत्तम, सर्वन, अर्हत्, जिन, स्वयंभू आदि मानकर अपनी श्रद्धा सुमन उनके चरणों में अर्पित करते थे।
निश्चयतः तीर्थंकर महावीर लोकभाषामें हिस-मिस-प्रिय देशना देते हुए ग्राम और नगरोंमें विचरण कर रहे थे। उनकी दिव्य देशना उत्तरसे दक्षिण और पूर्वसे पश्चिम इन चारों दिशाओं तथा चारों हो विदिशाओं में प्रकाश-पुञ्जका सृजन कर रही थी । सभी ओर उपदेशामृत्तकी धूम थी । युगोंसे चली आयी शारीरिक और मानसिक दासतासे मुक्ति प्राप्त हो रही थी। धर्मके मामपर प्रचलित रूढ़ियाँ और दर्शनके नामपर पनपते हुए दुराग्रह शान्त हो रहे थे। स्यावादमय यह दिव्यध्यनि विश्वधर्म और मानव-धर्मका ऐसा रूप प्रस्तुत कर रही थी, जिसकी आवश्यकता मानवमात्रको थी । अहिंसा और करुणाका मधर संगीत प्राणिमात्रको आहज्ञादित और निर्भय बना रहा था। मानव सदियोंसे मुले हुए अपने पुरुषार्थको जागृत कर रहा था। जाति-पातिकी झूठी मर्यादाएँ टूट रही थीं और यज्ञ-यायागादिके, बोशिल कर्मकाण्ड समाप्त हो रहे थे।
तीर्थकर महावीरने धर्मकी समस्त विकृतियोंको चुनौती दी । इतना ही नहीं उन्होंने धार्मिक जड़त्ता और आर्थिक अपव्ययको रोकने के लिये यज्ञ-विधियोंका विरोध किया । मनुष्यको मनुष्य के समीप बैठानेके लिये जन्मना वर्ण-व्यवस्था का विरोध किया और गण कर्मके आधारपर समाज-व्यवस्था प्रचलित की। सुखपूर्वक शान्तिकी श्वास लेनेके लिये अनेकान्तको वर्णमाला और व्रतोंके आचार-विचार प्रस्तुत किये । मनुष्यको स्वावलम्बी और स्वसन्त्र बनानेके हेतु नियतिवाद और ईश्वरवाद जैसे सिद्धान्तोंको समीक्षा की। उन्होंने बताया कि ईश्वर कहीं बाहर नहीं, वह प्रत्येक आरमाके भीतर है, जो अपने आपको पहचान लेता है, वही ईश्वर बन जाता है । ___ उनको दिव्यवनिका मधुर संगीत प्राणिमात्रको अपनी ओर आकृष्ट कर रहा था और 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' का उद्घोष भी जनताके लिये सरल-सहज मार्गका उद्घाटन कर रहा था । लोक-जीवन और लोक-शासन पावनताका अनुभव कर अपनेको निर्विकार और स्वतन्त्र समझ रहे थे । ____ महावीर वस्तुतः प्रबुद्ध थे, जागृत थे, तीर्थकर थे और थे पक्षपात एवं कालिमासे रहित । अतः उन्होंने अपने अनेकान्त-सिद्धान्त द्वारा जनसाके वैषम्मको दूर किया और राष्ट्रीयताको भावनाको जागृत किया । इनके उपदेशने विश्वशान्तिको सम्भावनाओंको सर्वाधिक स्पष्ट किया। इनका उपदेश प्राणि. मात्रके लिये हितकारी था । अहिंसाका अवलम्बन लेकर जनसाने अन्तरंग और २८४ : तीर्थकर महावीर और उनकी प्राचार्य-परम्परा