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बहिरंग शौर्यका अनुभव किया। जो पलायनवादी हैं। जीवन-संग्रामसे भागनेवाले हैं, वे अहिंसक नहीं हो सकते । अहिंसक निर्भय होकर जीवनसे जूमता है। कमियोंको दूर करता है और बनाता है सशक्त अपनी आध्यात्मिक उपलब्धियोंको । वैर-विरोध, घृणा, हिंसा आदि पतनके कारण हैं। इन्हीं विकारोंसे एक व्यक्ति दूसरे व्यक्तिका शत्रु बनता है, विरोधी बनता है और बनता है समाजका विघटन-फर्ता।
तीर्थकर महावीरके धर्मामृतने जन-जनमें नधे प्राण फूक दिये । लोक-चेतना. का कायाकल्प हो गया । अहंकारजन्य भेद-भावका विसर्जन किया और आत्मस्वरूपको समझने अनुभव करनेके लिये नये क्षितिज उद्घाटित किये। उनका उपदेश प्राणिमात्रके लिये समान रूपसे हितकर था।
उन्होंने गांव-गांव, नगर-नगर, जनपद-जनपदकी धरतोके एक-एक कणको पुलकित किया । जहाँ भी लोकभाषामें उनका प्रवचन होता, दम्भ और मिथ्यात्व वहाँसे लुप्त हो जाता था। वीतरागता मनके कालुष्यको धो डालती थी। मनके सारे विकार समाप्त हो जाते थे और हृदय पावनता एवं नम्रतासे भर जाता था । ज्ञानामृतको अपूर्व वर्षा मन:-श्रवण और मनः चक्षुका उद्घाटन कर देतो थी। उनके उपदेशोंमें न आडम्बरका समावेश था और न औपचारिकताका ही। वे इतने सरल, सुबोध और हृदयग्राही थे कि जिससे विज्ञ और अविज्ञ, अन्ध और बधिर, विकसित और अविकसित, ऋजु और वक्र एवं मानी और अमानी सभी समान रूपसे अपने कालुष्यको प्रक्षालित करते थे।
ती कर महावीरके मंगलकारी उपदेशको प्राणिमान श्रद्धापूर्वक नतमस्तक हो श्रवण करता था। उनकी उपकारी वाणी प्राणियोंके हृदयका सहज कालुष्य दूर करती थी और विश्वास, सहयोग और सहकारिताकी भावना वृद्धिंगत होती जा रही थी 1 जनताने सहस्राब्दियों के बाद पहलीबार धर्मको व्यापक लोकोपयोगिता शमझो थी। तीर्थकर पाश्चनाथने जिस अहिंसा-मार्गका निरूपण किया था, महावीरने उसी धरातल पर स्थित हो लोकमानसको क्रान्तिका एक अभिनव मोड़ दिया। शोषण और वर्गभेदको प्रवृत्ति समाप्त हो गयी तथा अहिंसा और संयमकी अपराजित शक्तियाँ विकसित हुई। चारों ओर सर्वोदयको सम्भावनाएँ स्पष्ट होने लगीं।
इस प्रकार तीर्थकर महावीरने लगभग तीस वर्षों तक धर्मामृतका वर्षणकर तत्कालीन समाजको उर्वर किया । निर्वाणकी ओर मानव जीवनका चरम लक्ष्य है निर्वाण प्राप्त करना । आरमाको परमात्मा
तीर्थकर महावीर और उनकी वैधना : २८५