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करणाको परम ज्योति प्रज्वलित
तीर्थकर महावीर उनतीस वर्ष, पाच माह और बीस दिन तक सपना देशना द्वारा जन-जनको ज्ञान देते रहे। उनकी देशना सुनते ही मिथ्यात्व भंग हो जाता, मोह छिन्न हो जाता और हृदयकी समस्त गाँठे खुल जातीं । उन्होंने मुनि-आयिका, श्रावक और श्राविकाओंके साथ विहार किया । गृहस्थ, नृपति, राजकुमार, राजकुमारियां, श्रेष्टि, सार्थवाह, विद्वान एवं बुद्धिजीवी-वर्गको प्रतिबोधित किया । उनको धर्मामृत-वर्षा काशी, कर्ममार-ग्राम, कोल्लाग-सग्निवेश, मोराक-सन्निवेश, नालन्दा, चम्पा, श्रावस्ती, वैशाली, विपुलाचल, वेभारगिरि, मगरके विभिन्न ग्राम-नगर, कोशाम्बो, मिथिला, विदेह, पंचाल, बंग, पुण्ड, ताम्रलिप्ति, हस्तिनापुर, साकेत, मथुरा, हेमांगद, कम्बोज, कुसन्ध्य, अश्वष्ट, शाल्व, त्रिगत, भद्रकार, पट्टच्चर, मौक, मत्स्य, कनीय, वकार्थक, कुरु-जांगल, कैकेय, आत्र य, वाल्होक, यवन, सिन्ध, गान्धार, सौवीर, सूरभारु, दरोरुक, बाड़वान, भरद्वाज, क्वाथतोय, ताण, कार्ण एवं प्रच्छाल आदि देशों और नगरोंमें हुई थी। __राजगृह, विपुलाचल, वैभार, चम्पा, वैशाली और नालन्दाको तो एकाधिक बार धर्मामृत-श्रवणका अवसर प्राप्त हुआ था। महावीरने अपनी देशना द्वारा लोक-हृदयको अपूर्व दिव्यता प्रदान की और जन-जनके ज्ञानचक्ष उम्मीलित कर दिये । अज्ञानका सधन अन्धकार समाप्त हो गया और ज्ञानका सूर्योदय अपनी भास्वर रश्मियोंसे आलोक प्रदान करने लगा 1 रूढ़िग्रस्त धर्म और समाजने मुक्तिको सांस ली । जनताका संदेह और भ्रम समाप्त हो गया।
उनका समवशरण चलता-फिरता एक विश्वविद्यालय था, जो स्पष्ट और प्राञ्जल ज्ञान-विज्ञानका प्रसार करता था | जहां भी उनका समवशरण जाता वहाँ करुणा और मैत्रीको सरिताएं प्रवाहित होने लगतीं । अन्तरात्माका कालुष्य धुल जाता । इतिहासको गरिमा व्यक हो जाती और संस्कृतिपर उत्पन्न हुए दुराग्रह छिन्न हो जाते । उज्ज्वलताकी लेखनीसे मानवताका इतिहास लिखा जाने लगा । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य, समत्व, संयम, मैत्री, पारस्परिक विश्वास एवं प्राणीमात्रकी समता अनेकान्तसिद्धान्तके रूप में प्रतिपादित हो रहे थे। उनका लोक-कल्याणकारी समवशरण पूर्वोक्त प्रदेशोंमें भ्रमणकर राजभवनसे जन-सामान्यकी झोपड़ी तक पहुंच चुका था। भारतका कोनाकोना तो उनके उपदेशसे आलोकित हुआ ही, पर ईरान, फारस, अफगानिस्तान, कम्बोडिया, अरब आदि देशोंकी प्रजाने भी उनकी उपदेश-सुधाका पान किया था। जहाँ भी तीर्थकर महावीर पहुँचे, जन-जनके हृदयसे उनके प्रति श्रद्धाको मन्दा
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : २८३