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यज्ञोंमें की जानेवाली हिंसा बीभत्स और अमानवीय है। पर बलि-प्रधानयज्ञके हिमायती ब्राह्मण और उच्च वर्गो अत्याचार एवं दवावके कारण किसी व्यक्तिमें इतनी शक्ति नहीं कि वह उसका तथा अन्य असामाजिक प्रवृत्तियोंका विरोध कर सके। न तो आज व्यक्तिगत स्वातन्त्र्य ही है और न उच्च आचारविचारको प्रतिष्ठा ही प्राप्त है। शान, कर्म और पाण्डित्यके दम्भने जनसामान्यके हृदयको स्तब्ध कर दिया है। आजका मनुष्य मनुष्य नहीं, दानव दिखलायी पड़ता है । प्रेम, शान्ति और त्यागका वातावरण कहीं भी नहीं है । ___ महावीरने तयुगोन समस्याओंपर विस्तारसे विचार किया। उन्होंने सोचा कि आज मनुष्य धनका दास बना हुआ है । वह धन और वैभवके बलसे स्वर्गका धाज्ञा-पत्र प्राप्त कर सकता है। ऐसा कोई भी साधन नहीं जो धनके बलसे न खरीदा जा सके । यज्ञीय समस्त विधियोंका संयोजन भी धन द्वारा किया जा सकता है। अतएव धन-त्याग या परिग्रह-नियमनकी अत्यन्त आवश्यकता है । समाज कल्याणके मार्गसे दूर हट गया है। भोगने पागधर अपः अधिकार जमा लिया है । मित्रसा, विश्वास, निष्कपटता और परम पुरुषार्थकी अवहेलना हो रही है । वृत्तियोंकी शुद्धि परम आवश्यक है । अवतक मनुष्य अपने विवेकको जागृत नहीं करेगा, तबतक उसका जीवन सांस्कृतिक नहीं हो सकता है। ___इस युगमें आध्यात्मिक लोकतन्त्रके स्थापनको अत्यन्त आवश्यकता है। हिसा, असत्य, शोषण, संचय, कूशील-विचार, असहिष्णुता, संचय-शीलसा आदिका विरोध करना मानवताके अभ्युत्थानहेतु आवश्यक है।
आज विधार-स्वातन्त्र्यको स्थान प्राप्त नहीं है। हठ्याद और दुराग्रह मानवताको पंगु बनाये हुए हैं । अपनी संकुचित दृष्टिके कारण विभिन्न संभावनाओं में आस्था उत्पन्न नहीं हो रही है। व्यक्ति, वस्तु, क्षेत्र और कालकी सीमाओं का विचार नहीं किया जा रहा है । जबसक एकान्तवादका विष बना रहेगा, तबतक मनुष्य चरम शक्तिको प्राप्त नहीं कर सकेगा। वर्तमानमें लोगोंकी दृष्टि इतनी संकीणं और संकुचित है, जिससे वस्तुकी पूरी सम्मावनाओंपर विचार नहीं किया जा सकता है । असहिष्णु और अनुदार व्यक्ति सत्यका साक्षात्कार नहीं कर सकता है । अतएव सापेक्ष कथन ही सत्यके निकट पहुँचाता है। व्यक्ति, स्थिति या वस्तुको लेकर सब कुछ एक साथ और एक समयमें कहना सम्भव नहीं है । शब्द और शब्द-प्रयोकाकी अपनी सीमाएं हैं तथा सुनने और समझनेवालोंकी भी अपनी सीमाएं हैं। चाहे कोई कितना ही बड़ा दावा क्यों न करें, पर सथ्योंको एक साथ उपलब्ध नहीं कर सकता, मार्जिन सदेव ही बना रहता
तीपंकर महावीर और उनकी देवाना : ११३