________________
"मुनयो वातरशना: पिशंगा वसते मला । वातस्यानु ध्राजि यन्ति यदेवासो अविक्षत ।। उन्मदिता मौनेयेन वाताँ आतस्थिमा वयम् । शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ ।।"
-ऋग्वेद १०, १३६, २-३. अर्थात् अतीन्द्रियदर्शी कातरशनामुनि मल धारण करते हैं, जिससे वे गिल वर्ण दिखलायी पड़ते हैं। जब वे वायुकी गतिको प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं, अर्थात् रोक लेते हैं, तब वे अपने तपकी महिमासे दीप्यमान होकर देवतास्वरूपको प्राप्त हो जाते हैं। सर्वलौकिक व्यवहारको छोड़कर मौनवतपूर्वक ध्यानस्थरूपमें विचरण करते हैं। उनका बाह्य शरीर मलसे लिप्त दिखलायी पड़ता है, पर अन्तरंग निर्मल होता है ।
ऋग्वेदमें केशीको भो स्तुति प्राप्त होती है । यह केशी साधनायुक्त होते हैं । लिखा है
"केश्पग्नि केशी विष केशी विर्भात रोदसी । केशो विश्वं स्वर्दशे केशीदं ज्योतिरुच्यते ।।"
-ऋग्वेद १०,१३६,१। केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वीको धारण करता है । केशी समस्त विश्वके तत्त्वोंका दर्शन कराता है । उसको ज्ञानज्योति केवलज्ञानरूप है । ___ ऋग्वेदके केशी और वातरशना मुनियोंकी साधनाओंका भागवतपुराणमें उल्लिखित ऋषभकी साधनाओंके साथ तुलनात्मक अध्ययन करनेसे स्पष्ट होता है कि ऋग्वेदके वातरशना मुनि और भागवतके वासरशना श्रमण एक ही सम्प्रदायके वाचक हैं। केशीका अर्थ केशधारी है 1 सम्भवतः ये वातरशनामनियोंके अधिनायक थे, इनकी साधनामें मलधारण, मौनव्रत और उन्माद भावका विशेष उल्लेख है । श्रीमद्भागवतमें ऋषभदेवकी जिस वृत्तिका वर्णन आया है, उससे स्पष्ट है कि वे केशधारी अवधूतके रूपमें विचरण करते थे।
जैन मूर्तिकलामें ऋषभदेवके कुटिल केशोंकी परम्परा प्राचीनतम कालसे पायी जाती है ! २४ तीर्थंकरों से केवल ऋषभदेवकी मूर्तिके सिर पर ही कुटिल केश दिखलायी पड़ते हैं और वही उनका प्राचीन विशेष लक्षण भी माना जाता है । पद्मपुराणमें ऋषभदेवकी जटाओंका उल्लेख आया है। हरिवंशपुराणमें' १. श्रीमद्भागवत, ५४६१२८-३१. २. पद्मपुराण ३।२८८. ३. हरिबंशपुराण ९१२०४. १२ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्म-परम्परा