________________
भी उन्हें प्रलम्बजाधारी बताया है ! मत ऋषभदेत्रका 'केशी यह नाम सार्थक प्रतीत होता है।
ऋग्वेदमें एक ऐसी ऋचा उपलब्ध है, जिसमें केशी और ऋषभ इन दोनों का उल्लेख है। यहाँ केशी ऋषभका विशेषण जैसा प्रयुक्त है। मंत्र निम्नप्रकार है
"ककर्दवे वृषभो युक्त आसीद् । अवावचीत् सारथिरस्य केशी । दुधेर्युक्तस्य द्रवत: संहानमः । कच्छन्तिमा निष्पदो मुद्गलानीम् ।।"
-ग्वेद १०,१०२.६, अर्थात् मुद्गल ऋपिकी गायोंको चोर चुग ले गये थे। उन्हें लौटानेके लिये ऋषिने केशी वृपभको अपना सारथी बनाया, जिसके वचनमात्रमे वे गायें आगेकी और न जाकर पीछेको लौट पड़ी। सायणने केशोको वृषभका विशेषण बतलाया है । लिखा है--
"अथवा, अस्य सारथिः सहायभूतः केशी प्रकृष्टके यो वृषभः अवावचीत् भृशमशब्दयत्" इत्यादि।
अर्थात् मुद्गल ऋषिने केशी वृषभको शत्रुओंका विनाश करनेके लिये अपना सारथी नियुक्त किया। इस ऋचाका आध्यात्मिक अर्थ यह है कि मुद्गल ऋषिकी जो इन्द्रियां पराङ्मुखी थीं, वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता कंशी वृषभका धर्मोपदेश सुनकर अन्तर्मुखी हो गयीं। अतएव यह स्पष्ट है कि ऋग्वेदमें जो केशीसूक्त आया है, वह ऋषभदेवके उल्लेखका सूचक है। डॉ० श्री हीरालाल जी जैनने लिखा है- "इस प्रकार ऋग्वेदमें उल्लिखित वात रशना मुनियोंका निर्मन्थ साधु तथा उन मुनियों के नायक केशी मुनिका ऋषभदेवके साथ एकीकरण हो जानेसे जैनधर्मकी प्राचीन परम्परापर बड़ा महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है |"""केशी नाम जेन परम्परामें प्रचलित रहा। इसका प्रमाण यह है कि महावीरके समय में पार्श्व-सम्प्रदायके नेताका नाम कोशीकुमार था (उत्तराध्ययन २३)।"
इस प्रकार वैदिक साहित्य के प्रकाशमें आदितीर्थंकर ऋषभदेव और उनके अनुयायी वातरशनामुनियोंका उल्लेख प्रास होता है। १. भारतीय संस्कृतिमें जैनधर्मका योगदान, प्रकाशक-मध्यप्रदेश-शासन, साहित्यपरिपद्,
भोपाल, सन् १९६२, पृ० १७.
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : १३