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पुरातत्त्व और ऋषभदेव
पुरातत्त्वकी दुष्टिसे भी ऋषभदेवकी प्राचीनता सिद्ध होती है। प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता डॉ० राखालदास बनर्जीने सिन्धुघाटीको सभ्यताका अन्वेषण किया है । यहाँके उत्खनन में उपलब्ध सील (मोहर) न० ४४९ पर चित्रलिपि में कुछ लिखा हुआ है । इस लेखको प्रो० प्राणनाथ विद्यालंकारने 'जिनेश्वरः ( जिन - इ-इ-सर: ' ) पढ़ा है । पुरातत्त्वज्ञ रायबहादुर चन्दाका वक्तव्य है कि सिन्धुघाटीकी मोहरोंमें एक मूर्ति प्राप्त होती है, जिसमें मधुराकी ऋषभदेवकी खडगासन मूर्तिके समान त्याग और वैराग्यके भाव दृष्टिगोचर होते हैं। सील नं० द्वितीय एफ० जी० एच० में जो मूर्ति उत्कीर्ण है, उसमें वैराग्य मुद्रा तो स्पष्ट है ही, उसके नीचेकं भागमें ऋषभदेवके चिह्न बैलका सद्भाव' भी है।
डॉ० श्री राधाकुमुद मुखर्जीने सिन्धु सभ्यताका अध्यका है फलक १२ और ११८, आकृति ७ (मार्शलकृत मोहन-जो-दड़ों) कायोत्सर्ग नामक योगासनमें खड़े हुए देवताओंको सूचित करती है। यह मुद्रा जैन योगियोंकी तपश्चर्या में विशेष रूप से मिलती है। जैसे मथुरा संग्रहालय में स्थापित तीर्थकर श्री ऋषभ देवता की मूर्ति । ऋषभका अर्थ है बेल, जो आदिनाथका लक्षण है । मोहर संख्या एक० जी० एच० फलक दोपर अंकित देवमूर्ति में एक बैल ही बना है | सम्भव है कि यह ऋषभ का ही पूर्व रूप हो । यदि ऐसा हो, तो शैव-धर्म की तरह, जैनधर्मका मूल भी ताम्रयुगीन सिन्धु सभ्यता तक चला जाता है" 1
मथुरा कंकाली टीलाके आविष्कारने ऋषभादि तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिकता पर प्रकाश डाला है | वहाँकी पुरातत्त्वकी उपलब्ध सामग्रीमें लगभग ११० अभिलेख प्राप्त हुई हैं। वहींके एक स्तूपमें संवत् ७८ की १८ वें तीर्थङ्कर अरहनाथकी प्रतिमा भी प्राप्त है । यह स्तूप इतना प्राचीन है कि इसके रचनाका समय ज्ञात करना कठिन है। डॉ० बिसेन्ट ए० स्मिथ के अनुसार मथुरा-सम्बन्धी अन्वेषणोंसे यह सिद्ध है कि जैनधर्मके तीर्थंकरोंका अस्तित्व ई० सन्से पूर्व में विद्यमान था । ऋषभादि २४ तीर्थंकरों की मान्यता सुदूर प्राचीनकालमें पूर्णतया प्रचलित थी । इसप्रकार ऋषभदेवकी प्राचीनता इतिहास और
१. The modern review, August, 1935 - Sindh Five thausands years ago.
२. हिन्दू सभ्यता ( हिन्दी-संस्करण), राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, सन् १९५८, पृ० २३. ३. द जैन स्तूप
मथुरा प्रस्तावना, पृ०
१४ तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा
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