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पार होनेका मार्ग प्रतिपादित करता है । अतएव वह मोक्षमार्गका प्रवर्तक युगपुरुष होता है। मानव-सभ्यताके सूत्रधार कुलकर और तीर्थंकरोंफा आरम्भ एवं संख्या
जैन विचारकोंकी दृष्टिसे यह संसार अनादिकालसे सतत गतिशील चला आ रहा है । इसका न कहीं आदि है और न कहीं अन्त । यह दृश्यमान विश्व परिवसंगती, परिणामी और निमाणी बटसे नित्य है और पर्यायकी दृष्टिसे परिवर्तनशील । प्रत्येक जड़, चेतनका परिवर्तन नैसर्गिक, ध्रुव एवं सहज स्वभाव है । जिसप्रकार दिनके पश्चात् रात्रि और रात्रिके पश्चात् दिन; प्रकाशके अनन्तर अंधकार और अंधकारके अनन्तर प्रकाशका प्रादुर्भाव होता है, उसीप्रकार अभ्युदयके पश्चात् पतन और पतनके पश्चात अभ्युदय प्राप्त होता है। उत्कर्ष और अपकर्षका यह क्रम निरन्तर चलता रहता है । कालचक्र के अनुसार उत्कर्षमय कालको उत्सर्पण और अपकर्षमय कालको अवसर्पण संज्ञा दी गयी है। इन दोनोंके सुषम-सुषम, सुषम, सुषम-दुषम, दुषमसुषम, दुषम और दुषम-दुषम य छह अवसर्पणके और दुषम-दुषम, दुषम आदि छह उत्सर्गणके भेद होते हैं । यह कालचक्र निरन्तर चलता है। उत्सर्पण कालचक्रमें प्राणियोंको वृद्धि और विकसित रूपमें भोगीपभोगकी सामन्त्री एवं अवसर्पणमें हासोन्मुखमें भोगोपभोगकी सामग्री प्राप्त होती है। इस कालचक्रमें जब प्रकृति ह्रासोन्मुख हो जातो है और मानवकी सुख-सामग्री घटने लगती है, तो उसे अभावका सामना करना पड़ता है। सुषम-सुषम और सुषम कालमें कल्पवक्षोंसे जीवनोपयोगी सामग्नी सहजरूपमें उपलब्ध होती है, पर सुषमदुषम कालके आते ही अभावका सामना करना पड़ता है। फलत: विचारसंघर्ष, कषाय-वृद्धि, क्रोध, लोभ, छल-प्रपंच, स्वार्थ, अहंकार और वैर-विरोधकी पाशविक प्रवृत्तियोंका प्रादुर्भाव होने लगता है और विभिन्न दोषोंसे मानव-समाज जलने लगता है। अशान्तिको असह्य अग्निसे त्रस्त एवं दिग्विमूढ़ मानवके मनमें शान्तिको पिपासा जागृत होती है। उस समय उस दिग्भ्रान्त परिस्थितिमें मानव-समाजके भीतरसे ही कुछ विशिष्ट प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति प्रकट होते हैं, जो श्रस्त मानव-समाजको भौतिक शान्तिका पथ प्रदर्शित करते हैं।
ये विशिष्ट बल, बुद्धि और प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति मानव-समाजमें कुलोंकी स्थापना करनेके कारण कुलकर कहलाते हैं। आचार्य जिनसेनने अपने महापुराणमें कुलकरकी परिभाषा निम्न प्रकार व्यक्त की है-- प्रजानां जीवनोपायमननान्मनवो मताः ।
आर्याणां कुलसंस्त्यायकृतेः कुलकरा इमे ।। ६ : तीर्थकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा