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तीर्थकर होंगे। ये भूत, वर्तमान और भविष्यत्कालके सभी तीर्थंकर धर्मके मूल स्तम्भस्वरूप शाश्वत सत्योंका समानरूपसे प्ररूपण करते रहे हैं, कर रहे हैं और करते रहेंगे । धर्मके मूल तत्वोंके निरूपणमें एक तीर्थकरसे दूसरे तीर्थकरका किंचिन्मात्र भी भेद न कभी रहा है और न कभी रहेगा। पर प्रत्येक तीर्थकर अपने-अपने समयमें देश, काल, जनमानसकी ऋजुता, तत्कालीन मानवकी शक्ति, बुद्धि, सहिष्णुता आदिको ध्यानमें रखते हुए उस कालके मानवके अनुरूप धर्म-दर्शनका प्रवनन करते हैं ।
देशकालके प्रभावसे जब तीर्थ में नानाप्रकारको विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, अनेक भ्रान्तियाँ पनपने लगती हैं और तीर्थ, विलुप्त, विशृंखलित एवं शिथिल होने लगता है, उस समय दूसरे तीर्थकरका समुद्भव होता है और वे विशद्धरूपेण नवीन तीर्थको स्थापना करते हैं। अत: वे तीर्थंकर कहलाते हैं। धर्मके प्राणभूत सिद्धान्त ज्यों-के-त्यों रूपमें उपदिष्ट किये जाते हैं | केवल बाह्य क्रियाओं एवं आचार-व्यवहार आदिमें ही किंचित् अन्तर आता है ।
जब पुराने घाट ढह जाते हैं, वे विकृत एवं अनुपयोगी हो जाते हैं। तब नवीन घाटोंका निर्माण किया जाता है । जब धार्मिक विधि-विधान में विकृति आ जाती है, तब तीर्थकर उन विकृत्तियों को दूरकर अपनी दृष्टिसे पुनः धार्मिक विधि-विधानोंका प्रवचन करते हैं। ये आत्मोपकारके साथ लोकोपकारमें भी प्रवृत्त रहते हैं। स्वयंको जीतकर अन्य लोगोंको स्वयं को जीतनेका मार्ग बतलाते है | इसप्रकार तीर्थकर-परम्परा प्रखरधारवाले भवसागरके तटपर घाट स्थापित करनेके साथ सम्यग्दर्शन, सम्बम्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके पोत भी निमित्त करती है।
तीर्थंकर कोई रूढ़ शब्द नहीं है । यह महिमाशाली, दयालु, निःस्वार्थ, निर्भीक, सर्बज्ञ, जितेन्द्रिय और निर्मल विश्वासीके लिये प्रयुक्त होता है। इसमें अनन्त अपरिमित ऊर्जा और आत्मनल पाया जाता है। तीर्थंकर पद आत्मविकासका चरमोत्कर्ष है और है आत्मविद्याका सर्वोच्च शिखर । तीर्थंकरोंने भौतिक जीवनको आध्यात्मिक जीवनदर्शन दिया । आत्मसाधनाका एक विशुद्ध और सुपरीक्षित मार्ग बतलाया है। उन्होंने सत्यकी शोध, आत्मसाक्षात्कार और सुलझी हुई आत्मदृष्टि द्वारा मनुष्यकोस्वानुभूतिका प्रतिष्ठित मागं बतलाया है । निःसन्देह तीर्थ' एक लोक-प्रचलित शब्द है, पर तीर्थकरके अर्थ में उसका प्रयोग लक्षणा और व्यंजना इन दोनों शब्द-शक्तियों द्वारा होता है। अतः तीर्थकर वह विशिष्ट वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी व्यक्ति है, जो संसार-सागरसे
तीर्थकर महावीर और उनकी देशना : ५