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सम्पूर्ण चराचर जगत् प्रतिभासित होता है। मृदंगकी ध्वनिके समान तीर्थकरकी दिव्यध्वनि भी नितान्त निस्पृह तथा परम लोकोपकारी होती है। तीर्थकर : व्युत्पत्ति एवं अवधारणा
तीर्थकरशब्द तीर्थ उपपद कृञ् + अप्से बना है । इसका अर्थ है जो तीर्थधर्मका प्रचार करे वह तीर्थंकर है। तीर्थशब्द भी/तृ + थक्से निष्पन्न है। शब्दकल्पद्रुमके अनुसार 'तरसि पापाविकं यस्मात् इति तीर्यम्' अथवा 'तरति संसारमहार्णवं घेन तत् तीर्थम्' अर्थात् जिसके द्वारा संपारनहाय या पाकोसे पार हुआ जाय, वह तीर्थ है । इस शब्दका अभिधागत अर्थ घाट, सेतु या गुरु है और लाक्षणिक अर्थ धर्म है। तीर्थकर वस्तुतः किसी नवीन सम्प्रदाय या धर्मका प्रवर्तन नहीं करते वे अनादिनिधन आत्मधर्मका स्वयं साक्षात्कार कर दीतरागभावसे उसकी पुनव्याख्या या प्रवचन करते हैं 1 तीर्थंकरको मानवसभ्यताका संस्थापक नेता माना गया है। ये ऐसे शलाकापुरुष हैं, जो सामाजिक चेतनाका विकास करते हैं और मोक्ष-मार्गका प्रवर्तन करते हैं।
तीर्थका अर्थ 'पुल' या 'सेतु' है । कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल-से-निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमतासे पार कर सकता है । तीर्थंकरोंने संसाररूपी सरिताको पार करनेके लिये धर्मशासनरूपी सेतुका निर्माण किया है । इस धर्मशासनके अनुष्ठान द्वारा आध्यात्मिक साधनाकर जीवनको परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है। __ तीर्थशब्द 'घाट' के अर्थमें भी व्यवहृत है। जो घाटके निर्माता हैं, वे तीर्थकर कहलाते हैं । सरिताको पार करनेके लिये घाटकी सार्वजनीन उपयोगिता स्पष्ट है । संसाररूपी एक महानदी है । इसमें क्रोध, मान, मायादिके विकाररूप मगर-मत्स्य मुँह फाड़े खड़े हुए हैं। कहींपर मायाके विषैले सर्प फुत्कार करते हैं. तो कहींपर लोभके भंवर विद्यमान हैं। इन समस्त बाधाओंसे मुक्ति प्राप्त करने के लिये तीर्थकर धर्म-घाटका निर्माण करते हैं। इस धर्मका अनुष्ठान और साधनाकर प्रत्येक साधक संसाररूपी नदीसे पार हो सकता है।
आगम बतलाता है कि अतीतके अनन्तकालमें अनन्त तीर्थकर हुए हैं । वर्तमानमें ऋषभादि चतुर्विशति तीर्थंकर हैं और भविष्यत में भी चतुर्विति
१. अनात्मार्थ विना रागैः शास्ता शास्ति सतो हितम् । ध्वमन् गिल्पिकरस्पर्शान् मुरजः किमपेक्षते ।।
-आ. समन्तभद्र : रत्नकथा, श्लोक. ८.
४ : तीयंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा