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कुलानां धारणादेते मत्ताः कुलधरा इति । युगादिपुरुषाः प्रोक्ता युगादौ प्रभविष्णवः || १
अर्थात् प्रजाके जीवनका उपाय जाननेसे मनु और आयं पुरुषों को कुलकी भाँति इकट्टे रहने का उपदेश देनेसे कुलकर कहे जाते हैं । अनेक वंश स्थापित करने के कारण ये कुलवर भी कहलाते हैं ! युगके आदिमें होने से युगादिपुरुष माने जाते हैं ।
कुलकरोंके द्वारा अस्थायी व्यवस्था की जाती है, जिससे तात्कालिक समस्याका आंशिक समाधान होता है। प्रथम, द्वितीय और तृतीय कालके कुछ भाग तक कल्पवृक्षोंके सद्भावके कारण मानव स्वतन्त्र और वन विहारी था । अतएव विशिष्ट प्रतिभाशाली व्यक्तियोंने नेतृत्व स्वीकार कर उस समयके मानवों को छोटे-छोटे कुलों में व्यवस्थित किया । ये कुलकर मानव सभ्यता के सूत्रधार थे । इन्होंने मनुष्यको प्रकृतिसे समरस किया और उसे सम्पन्न जीवन व्यतीत करनेका मार्ग बतलाया । आरम्भ में मनुष्य प्रकृतिके रहस्योंसे अपरिचित था, कुलकरोंने प्रकृति और मानवके सम्बन्धको उद्घाटित किया और मनुष्यको जीने की कलासे परिचित कराया । समाजका ढांचा तैयार कर विवेक एवं विचारकी शिक्षा दी । इसी कारण मनुष्य बर्वरता के स्तरसे ऊपर उठा और शनैःशनैः प्रगति के मार्गपर आगे बढ़ने लगा । कृषि और औद्योगिक सभ्यताकी ओर मनुष्यको प्रवृत्त करनेका श्रेय कुलकरपरम्पराको है। ये कुलकर ही ग्राम और नगर संस्कृतिके जनक हैं ।
कुलकरोंकी संख्या चौदह मानी गयी है। प्रत्येक कुलकर अपने-अपने समयम तात्कालिक समस्याओंके समाधान के साथ श्रम और उद्योगकी शिक्षा देते हैं। चौदहवें कुलकर नाभिरायने मनुष्यको कर्म और पुरुषार्थ के धरातलपर ला खड़ा किया । इन कुलकरोंने मनुष्य को बताया कि भयानक पशुओं से कैसे रक्षा करनी चाहिये | किन पशुओं को पालतू बनाया जा सकता है और उनसे उत्पादन कार्य में किस प्रकार सहायता ली जा सकती है आदि बातें प्रतिपादित की । भूमि एवं वृक्षों के स्वामित्वको मर्यादा, कृषि, खेत खलिहान, हाट, बाजार, कला, विज्ञान आदि विविध क्षेत्रोंमें मनुष्यको प्रविष्ट वायनेका कार्य भी इन्होंने सम्पादित किया । नदीपर घाट बांधना, यान चलाना, पर्वतारोहण करना, सड़क, भवन, कूप आदिका निर्माण करना एवं विविध वस्तुओंके उपयोगकी कला भी कुलकरोंने सिखलायी । परिवार, समाज, शासन आदिको नियम उपनियम भी इन्होंने बतलाये | कुलकरों द्वारा भौतिक साधनों के उपयोगकी जानकारी प्राप्त हो जाने पर भी सहज, शान्त और निर्दोष जीवनयापनके लिये धर्मकी आवश्यकता
१. महापुराण आदिपुराण ३१२११-२१२.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना
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