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क्रमभावनियमरूप होता है । सहचारियों-रूपरसादिकों और व्याप्य व्यापकों -- शिशपात्व- बृक्षत्वादिकमें सहभावनियम होता है तथा पूर्वचर- उत्तरचरों और कार्य-कारणों में क्रमभावनियम होता है । अविनाभावको तादात्म्य और तदुत्पत्तिसे ही नियन्त्रित नहीं किया जा सकता । जिनमें परस्पर तादात्म्य नहीं है, ऐसे रूप-रसादिमें रूपसे रसका अनुमान तथा जिनमें परस्पर कार्यकारण संबंध नहीं है, ऐसे कृत्तिकोदय और शकटोदय में कृत्तिकोदयको देखकर शकटोदयका अनुमान किया जाना तादात्म्य और तदुत्पत्ति सम्बन्ध से पृयक क्षेत्रवर्ती है । अतः अनुमानकी मूलधुरा साध्यसाधनों के अविनाभाव - व्याप्तिके निश्चयपर स्थित है।
सामान्यतया अविनाभावको तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति संज्ञाओंसे प्रतिपादित किया है। यहा होना पति और साध्यके न होनेपर साधनका न होना अन्यथानुपपत्ति है । यथा अग्निके होनेपर घूमकर होना और अग्निके न होनेपर धूमका न होना । यह तथोपपत्ति और अन्यथानुपपत्ति हो अनुमानकी नियामिकायें हैं। यों तो अनुमान के लिए अविनाभावसंबंरूप व्याप्ति अपेक्षित है । साध्य और साधनभूत पदार्थोंका धर्म व्यासि कहलाता है, जिसके ज्ञान और स्मरणसे अनुमानकी पृष्ठभूमि तैयार होती है । 'साध्यके बिना साधनका न होना और साध्य के होनेपर ही होना' ये दोनों धर्म एक प्रकारसे साधननिष्ठ हैं । 'इसी प्रकार साधनके होनेपर साधनका होना ही' यह साध्यका धर्म है । साध्य के होनेपर ही साधनका होना अन्वय और साध्यके अभाव में साधनका न होना व्यतिरेक कहलाता है ।
कुछ चिन्तकोंने व्याप्तिग्रहणके निम्नलिखित साधन बतलाये हैं
१. भूयः सहचार दर्शन
२. व्यभिचारज्ञान - विरह । ३. तर्क - विपक्षबाधक तर्क ।
४. अनुपलम्भ - व्यतिरेक । ५. भूयो दर्शनजनित संस्कार |
६. सामान्यलक्षणा |
७. शब्द और अनुमान ।
वस्तुतः व्याप्तिका निश्चय तर्केसे होता है, जो उपलम्भ तथा अनुपलम्भपूर्वक होता है । यथा अग्निके होनेपर ही घूमका होना और अग्निके अभाव में घूमका न होना, इनका व्याप्तिसम्बन्ध है । व्याप्तिका ग्रहण तर्क द्वारा ही प्रतिष्ठित है । व्याप्तिके दो या तीन भेद प्राप्त होते है । तीन भेदोंमें बहिर्व्याप्ति, सकलव्याप्ति
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४४१