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को नय कहा जाता है ।" शानीका जो विकल्प वस्तुके एक अंशको ग्रहण करता है वह भी नय कहलाता है । यह नयव्यवस्था प्रमाण में हो होता है, अप्रमाण में नहीं । दूसरी बात यह है कि नय हमेशा प्रमाणका मंशरूप ही रहता है, पूर्ण रूप नहीं । यदि अप्रमाण में नयव्यवस्था मान ली जाय तो किसी भी वस्तुको सिद्धि सम्भव नहीं है और सर्वत्र अव्यवस्था या अनवस्था उपस्थित हो जायगी । प्रमाणके विषयभूत स्व और पदार्थ के अंशका जिसके द्वारा निर्णय किया आय यह कहलाता है।
" नीयते गम्यते येन श्रुतार्थांशो नयो हि सः" अर्थात् जिसके द्वारा श्रुतज्ञानरूप प्रमाणके विषयभूत पदार्थ के अंशका ज्ञान किया जाय, वह नय कहलाता है । नयका उद्भव श्रुतज्ञानसे होता है । यह एक सायंक दृष्टिकोण है । इसका प्रयोग करनेके लिए वक्ता स्वतन्त्र है, पर अनुबन्ध इतना ही है कि वक्ता एक समयमें एक ही सुनिश्चित दृष्टिका सुनिश्चित अर्थ में प्रयोग करे । नय विरोधको शान्त करता है। निरपेक्ष नयको मिथ्या और सापेक्ष नयको अर्थकृत् माना जाता है ।
वस्तु-अधिगमके उपायोंमें प्रमाणके साथ नयका भी निर्देश पाया जाता है | प्रमाण वस्तुके पूर्ण रूपको ग्रहण करता है और नय प्रमाणके द्वारा गृहीत एक अंशको प्रमाण समप्रभावसे ग्रहण करता है और नय अंशरूपसे । यथा" अयं घट: " इस ज्ञानमें प्रमाण घटको अखण्ड भावसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, आदि अनन्त गुण-धर्मका विभाग न करके पूर्णरूपमें जानता है, पर नयके कथनानुसार 'रूपवान् घटः' 'रसवान् घटः' आदि एक-एक गुणधर्मानुसार वस्तुका निरूपण किया जाता है । यहाँ यह स्मरणीय है कि प्रमाण और नय दोनों ही ज्ञानवृत्तियाँ हैं। दोनों ज्ञानात्मक पर्यायें हैं । जब शाताकी सकल ग्रहणकी दृष्टि होती है, तब ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाणसे ग्रहीत वस्तुको खण्डशः ग्रहण करनेकी दृष्टि रहती है, तब अंशग्राही नय कहलाता हैं। प्रमाणज्ञान नयको उत्पत्तिके लिए भूमिका तैयार करता है । सारांशतः सकलग्राही ज्ञान प्रमाण और अंशग्राही विकल्पज्ञान नय है। अखण्ड भाव से ग्रहण करना प्रमाणको सीमामें समाविष्ट है और खण्डभावसे ग्रहण करना नयकी सीमा के अन्तर्गत है । इसीसे प्रमाणको सकलादेशी और नयको विकलादेशी भी कहा गया है ।
१. लोवाणं वबहारं श्रमविवक्खा जो पसादि । सुणाणस्स वियोसावि लिंगसंभूदां ॥ २. 'स्वाथैकदेश निणीतिलक्षणों हि नयः स्मृतः ।
स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा. - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक १०६/४. तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना : ४५९