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सुनय एवं सुर्नय
नय भी विषय विवेचनकी दृष्टिसे सम्यक् और मिथ्यारूपमें विभक्त हैं । जो नय अनेकान्तात्मक वस्तुके किसी धर्मविशेषको सापेक्षिकरूपसे ग्रहण करता है वह सुनय कहलाता है । सुनय अनेकान्तात्मक वस्तुके किसी विशेष अंशको मुख्यभावसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंका निराकरण नहीं करता । उनकी ओर तटस्थभाव रखता है । यतः अनन्तधर्मा वस्तुमें सभी नयोंका समान अधिकार है । सुनय वही कहा जाता है जो अपने अंशको मुख्यरूपसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंको गौण तो करे, पर उनका निराकरण न करे और उनके अस्तित्वको स्वीकार करे। जो नय दूसरे धर्मोका निराकरण करता है और अपना ही अधिकार प्रतिष्ठित करता है, वह दुर्नय है । प्रमाणमें पूर्ण वस्तु आती है । नय एक अंशको मुख्यरूपसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंको गौल करता है । पर उनकी अपेक्षा रखता है, तिरस्कार नहीं करता । पर दुर्नय अन्य निरपेक्ष होकर अन्यका निराकरण करता है। प्रमाण तत्-अतत् सत्और असत् सभीको ग्रहण करता है, किन्तु नय स्यात्, सतु रूपमें सापेक्ष ग्रहण करता है । दुर्नय स्यात्का तिरस्कार र निश्पेन है।
जो अपने पक्षका आग्रह करते हैं, वे सभी नय मिथ्या हैं, क्योंकि इनके द्वारा परका निषेध होता है । पर जब ये ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं तब सम्यक्त्वके सद्भाववाले हो जाते हैं ।" जिस प्रकार मणिमाँ एक सूतमें पिरोये जानेपर रत्नावली या रस्नाहार बन जाती हैं उसी प्रकार सभी नय सापेक्ष होकर सम्यक हो जाते हैं और सुनय कहलाते हैं। निरपेक्ष रहनेपर नयोंको दुर्नय कहा जाता है ।
जितने वचनविकल्प हैं, उतने हो नय हैं। जो वचनविकल्परूपो नय परस्पर सम्बद्ध होकर स्वविषयका प्रतिपादन करते हैं, वे स्वसमयप्रज्ञापनासम्यक् कथन हैं और जो अन्यनिरपेक्षवृत्ति हैं व अन्य धर्मोक व्याघातक होनेसे दुर्नय या मिथ्या नय है ।
१. सम्हा सक्ने वि गया मिच्छादिट्ठी सपक्खपबिदा |
अपणोष्णणितिभा उण हर्षान्ति सम्मत्त सम्भावा ॥ सन्मतिसूत्र १।२१.
२. जावश्या वयणवहा सावइया वेव होंति नयवाया ।
जावया जयवाया तावइया वेव परसमय। ॥ ३. जो वणिजवियप्पा संज्जन्तेसु होम्ति एएसु । सा समग्रपण्णवण्णा वित्थय राऽऽसागणा अण्णा ॥
४६० : तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य-परम्परा
- वहीं सूत्र ३२४७.
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वही, सूत्र १५३.