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सारांश यह है कि प्रत्येक नय अपने-अपने विषयको ही ग्रहण करते हैं । उनका प्रयोजन अपनेसे भिन्न दूसरे नयके विषयका निराकरण करना नहीं, किन्तु गौण - प्रधानभावसे ये परस्परसापेक्ष होकर ही सम्यक् होते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक तन्तु स्वतन्त्र रहकर पटकार्यको करनेमें असमर्थ है, किन्तु जन तन्तुओं के मिल जानेपर पटकार्यको उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार प्रत्येक नय स्वतन्त्र रहकर अपने कार्यको उत्पन्न करनेमें असमर्थ है, परन्तु परस्परसापेक्षभावसे ये नय सम्यक्ज्ञानकी उत्पत्ति करते हैं। नयके बिना मनुष्यको स्याद्वादकी प्रतिपत्ति नहीं होती। अतः जो एकान्तके आग्रह से मुक्त होना चाहते हैं, उन्हें नयद्वारा वस्तुज्ञानमें प्रवृत्त होना चाहिए ।
नयभेद
वस्तु सामान्यविशेषात्मक है । जो वस्तुमें सामान्य धर्मको मुख्यता से ग्रहण करता है, विशेष धर्मको गौण करता है, वह द्रव्यार्थिक नम है। इसके विपरीत जो वस्तुके सामान्य स्वरूपको गौणकर विशेष स्वरूपको मुख्यतासे ग्रहण करता है, उसे पर्यायार्थिक नय कहते हैं । द्रव्याधिकनय प्रमाणके विषयभूत द्रव्यपर्यायात्मक, एकानेकात्मक अर्थका विभाग करके पर्यायार्थिक नयके विषयभूत मेदको गौरीकारकर अपने विषयरूप द्रव्यको अभेदरूप व्यवहार करता है। अथवा द्रव्य ही जिसका प्रयोजन है, वह द्रव्यार्थिकनय है ।" द्रव्यार्थिकनयों में द्रव्य एवं पर्यायार्थिकनयों में पर्याय विषय है । द्रव्याथिकनकी दृष्टिसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य और आकाशद्रव्य एक-एक हैं। जीव, पुद्गल और काल द्रव्य अनेक हैं ।
पर्यायार्थिक नयका आधार पर्याय है । यह पर्याय अर्थपर्याय हो. या व्यञ्जनपर्याय, स्थूलपर्याय हो या सूक्ष्मपर्याय, शुद्धपर्याय हो या अशुद्धपर्याय सभी पर्यायार्थिक नयके विषय है । यद्यपि पर्यायें सादि सान्ब ही होती हैं। पर अनेक पर्यायोंके समूहरूप व्यञ्जनपर्यायकी अपेक्षा पर्यायोंके अनेक भेद किये जा सकते हैं। इनमें अनादि पर्याय तो पुद्गल द्रव्यकी वह व्यञ्जनपर्याय है, जो सूक्ष्मरूपसे परिणमनशील रहनेपर भी बाह्यमें सदा ज्यों-की-त्यों दिखलाई
१. द्रव्यमर्थः प्रयोजनमस्येत्यसौ द्रव्यार्थिकः ।
पर्यार्थः प्रयोजनमस्येत्यसो पर्यायार्थिकः ॥
सर्वार्थसिद्धि १ ६.
२. पर्यायों विशेशेऽपवादो व्यावृत्तिरित्यर्थः । तद्विषयः पर्यायार्थिकः ।
- सर्वार्थसिद्धि १-३३.
तीर्थंकर महावीर और उनकी देशना ४६१